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________________ ३६ श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय)। स्तुति और श्रावक धर्म स्वरूप गर्मित चार आर्य वेद रचे, उनोंका नाम १ संसारदर्शनवेद, २ संस्थापन परामर्शनवेद, ३ तत्वावबोधवेद, ४ विद्याप्रबोधवेद, इन चारों में सर्वनय, वस्तु कथन, सोले संस्कार आदि अनेक स्वरूप उनों को पढ़ाये, वह सुविधनाथ अहंत के शासन तक वो यथार्थ रहा, पीछे तीर्थ विच्छेद हुआ, तद पीछे वह ब्रामणाभासों ने धन के लालच से उन वेदों में अपणे स्वार्थ सिद्धि की कई श्रुतियां अपणे महत्व की डाल दी। पीछे भरतराय ने शत्रुजय तीर्थ का संघ निकाला, पहला उद्धार कराया, पृथ्वीतल को जिन मंदिरों से अलंकृत करा, अष्टापद पर्वत पर भगवान के । उपादेशानुसार आगे होने वाले २३ तीर्थंकरों का वर्ण लंछन देहमान युक्त 'सिंह निषद्या प्राशाद कराया, एकेक दिशा में चत्तारि, अट्ट, दस, दोय बंदिया, ऐसे २४ भगवानों की प्रतिमा स्थापन करी, इस का वर्णन पावश्यक सूत्र में है। भरत ने दंड रत्न से पहाड़ को ऐसा छीला सो कोई भी अपने पांवों के चल ऊपर नहीं चढ़ सके उस के एकेक योजन के फासले पर पाठ पगथिये बणादिये, तब से कैलास का अपरनाम अष्टापद प्रसिद्ध हुआ, ऋषभदेव अपणे ६६ पुत्र तथा दश हजार साधु साथ कैलास पर निवाण पाये तब से कैलास महादेव का स्थान कहलाया। भरत चक्री एक दिन सोलह श्रृंगार पुरुष का धारण कर आदर्श भवन में गया उहां अंगुली की एक मुद्रिका गिरजाने से उसकी अशोभा देख क्रम २ गहना बन उतार कर देखता है तो विभत्सांग दीखने लगा सब पर पुद्गल की शोभा संसार की अनित्य भावना भाते केवल ज्ञान उत्पन्न भया तव शासन देवता ने यति लिंग लाकर दिया, आप विचरते अनेक भव्यों को उपदेश से तार के मोक्ष प्राप्त भये । इनों के पट्ट सूर्ययश बैठा, इस ने भी पिता की तरह जिन-गृह से पृथ्वी को शोभित करी, इस का अपर नाम आदित्ययश भी है, इस के हजारों पुत्रों से सूर्य वंश चला, भगवान ऋषभ के कुरु पुत्र से कुरु वंश पला, जिस वंश में कौरव पांडव हुए हैं । सूर्ययश पास कांकणी रन नहीं.
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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