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________________ १६ श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) । नुसार वहिन और भाई, स्त्री भार का संबंध करतेये, उनों के फेर यथानुक्रम युगल होतेथे, जैनमतके मापसे तीन गाउ प्रमाण उनका शरीर ऊंचांथातीन पल्य की आयु थी, दो सौ छप्पन पृष्ठ करंड (पांसली) थे, धर्म करना तथा पाप कृत्य जीव हिंसा, झूठ, चोरी, प्रमुख ये दोनों ही विशेष नहीं थी, गिनती के युगत थे, वाकी अन्य जीव जंतु थे, वह क्षुद्र परिणामी नहीं थे, धान्य, फल, पुष्प, इतु, प्रमुख पदार्थ वनों में स्वयमेव ही उत्पन्न होते थे, मनुष्यों के काम में नहीं आते थे, तिचंच काम में लेते थे, वल्कलचीवर पहनते थे, मरे बाद उन मनुष्यों का शरीर कीरवत् हवा से उडजाता था, दुर्गधी नहीं फैलती थी, उन १० जात के कल्प वृक्षों का नाम जैन शास्त्रों से जान लेना। जम्बूद्वीप पनची आदि शास्त्रों से कुछ प्रथम आरे का स्वरूप लिखा है। असंख्यातगुण हानि होकर दूमरा आरा लगा ३ कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण का, इस के प्रवेश समय दो गाऊ का देहमान. दो पल्य का आयु, १२८ पांशुली, वाकी व्यवस्था प्रथमारक की तरे समझ लेना। . असंख्यात गुण हानी होकर तीसरा आरा लगा, एक गाऊ का देहमान, एक पल्य की आयु, ६४ पसलिया क्रम २ से सर्व वस्तु हानी एकाएक नहीं होती। आखर उतरते अगले पारे का भाव आ ठहरता है, इस तीसरे आरे के अंत में सात कुलगर-एक वंश में उत्पन्न हुये, जिनों ने उस काल के मनुष्यों के उचित कुछ २ मर्यादा बांधी, इन ही सातों को लौकीक में मनु कहते हैं, उनों का अनुक्रम से उत्पन्न होना-उनो के नाम (१) विमल वाहन (२) चक्षुष्मान (३) यशस्वी (४) अभिचंद्र (५) प्रश्रेणि (६) मरुदेव (७) नाभि । दूसरे वंश के भी सात कुलगर भये, एवं १४ मनु, पनरमा नाभि का पुत्र ऋषभदेव एवं १५ भये । पूर्वोक्त विमलवाहनादि ७ कुलगरों के यथानुक्रम भार्याओं का नाम-(१) चंद्रंयशा (२) चंद्रकांता (३) सुरूपा (४) प्रतिरूपा (५) चतुकांता (६) श्रीकांता (७)मरु देवी ये सर्व कुलकर । गंगासिंधु के मध्य खंड में भये, इनों के होने का कारण कहते हैं, तीसरे आरे के उतरते काल दोष से १० जाव के
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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