SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - श्रदेव-स्वरूप । पुत्र नहीं हो सकता । जिस मद्य के पीने में ५२ अवगुण प्रगट हैं ऐसी नहा श्रमक्ष वस्तु चेतनता नष्ट करने वाली ईश्वर को प्रगट करने की क्या गरज थी फिर अनेक पापी जनों के पाप की सजा आप भोगने मरने के मुख हुआ । ईश्वर का पुत्र अपने ईश्वर से प्रार्थना कर पापों की माफी कराने समर्थ नहीं था सो अन्य लोगों के पाप का दंड आप भोगा, पुनः यह भी गैर इन्साफ है पाप करे एक, उसका दंड पावे दूसरा, इत्यादि अनेक लक्षणों से ऐसी चेष्टा वाला न तो ईश्वर न ईश्वर का पुत्र हो सकता है। कई मतावलम्बियों ने शुद्ध पूरण ब्रह्म ज्ञानानंद ईश्वर को जगत् जीवों को सुख दुःख देने वाला जगत् सारे का न्याय करने वाला चीफजज बना डाला । दिन रात उसको इन्साफ की चिंता में मग्न रहने वाला ठहराया जैसे गरमी के मौसम में हाकिम लोग छुट्टी पर इन्साफ की चिंता से निवृत्ति पाते हैं वैसे ही जन ईश्वर उन मतावलंबियों का सर्व जगज्जीवों को सुषुप्ति में गेर देता है उन दिनों में कुछ इन्साफ से छुट्टी पाकर सुखी रहता होगा फिर उन विचारे जीवों को जाग्रत कर कर्म फल भोगाने उनका ईश्वर उद्यम करता रहता है। उन विचारे जीवों को सुषुप्ति में पड़े को क्यों ईश्वर जगाता है इसमें ईश्वर को क्या लाभ होता है प्रथम तो उन्हों को जाग्रत करना फिर वे कर्म करें उनको अच्छे बुरे का फल देना बैठे बिठाये ईश्वर को क्या गुदगुदी उठती है सो ऐसा कृत्य बेर २ करते रहता है । इस प्रकार अनेक कलंक शुद्धं ईश्वर को मतावलम्बियों ने स्व कपोल कल्पित ग्रन्थों में लिखे हैं । ग्रन्थ गौरव भय से इहां संक्षेपतया लिखा है । १३ (१) विशेष ईश्वर को जगत् का कर्त्ता हर्त्ता मानने वालों का खंडन हमारा रचा सम्यग्दर्शन ग्रन्थ देखो ।
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy