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________________ ( ७१ ) व्य की पर्यायें या अवस्थायें हैं जिन को व्यवहार काल कहते है। नोट-काल द्रव्य और उस की पर्यायों की विस्तृत ध्यात्या आदि जानने के लिये देखो "श्री बृहत् जैन शब्दार्णव " भाग १ मे शब्द 'अङ्क-विद्या' का नोट ८, पृष्ठ ११० से ११३ नक। जीव और पुद्गल तो हमको प्रत्यक्ष प्रगट है,परतु चार द्रव्यों का ज्ञान होने के लिए हमको इस सिद्धान्त पर विचार करना चाहिये कि जगत में हर एक काम के लिये उपादान और निमित्त दो कारणों की आवश्यक्ता पड़ती है। जो स्वयं कार्यमें परिणमन करता है उसे उपादान कारण व जो उसके सहायक होते हैं उनको निमित्त कारण कहते हैं। जैसे सुवर्ण की मुद्रिका वनी; इस में सुवर्ण उपादान कारण है और सुनार के औज़ार आदि निमित्त कारण हैं। जीव और पुद्गल हलन चलन करते हैं और उहरते हैं, स्थान पाते हैं तथा अवस्थाओं को बदलते हैं । जैसे एक श्रादमी या एक पक्षी चलता है, चलते २ रुकता है, जगह पाता है व हर समय अवस्था बदलता है । धूला कमी उड़ता है. कभी ठहरता है, जगह पाता है या अवस्था को बदलता है ये चार काम वे दोनों अपनी ही शक्ति से करते हैं । इस लिये इनके उपादान कारण तो ये स्वयं है और निमित्त कारण चार भिन्न २ कार्यों के चार द्रव्य हैं; सो क्रमसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल हैं। लोकाकाश मर्यादा रूप है । आकाश अनन्त है। यदि धर्म अधर्म द्रव्य न माने जातो जीव और पुद्गल एक लोक की मर्यादा में न रह
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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