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________________ ( 8 ) संकल्पादि मनके द्वारा होते हैं । परमात्मा के न मन है, न वचन है, न काय | तब फिर " जगत को बनाऊँ व किसी को सुख दुःख दू " यह भाव कैसे शुद्ध, निरंजन आत्मा में उठ सकता है ? परमात्मा कृतार्थ है । उसके कोई शुभ अशुभ कामना नहीं उठ सकती है। यदि परमात्माको कर्ता माना जावे तो किसी समय जगत के प्रवाह का अभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि जो नहीं होता है वही किया जाता है । सो अनादि अनंत चलने वाला जगन अपनी विचित्रता को छोड कर कभी एक रूप नहीं था; न हो सकता है । जो परमात्मा को जगन कर्ता मानते हैं वे उसको सर्वव्यापक और निराकार मानने है । सर्वव्यापक में हलन चलन नहीं हो सकता; निराकार से साकार नहीं हो सकता । निर्विकार के इच्छा नहीं हो सकती । इसी तरह परमात्मा को न्याय करके सुखदुःख देने की भी ज़रूरत नहीं है। जो ऐसा मानते है वे परमात्मा को राजा के समान व अपने को प्रजा के समान मानकर कहते है । यदि कोई सर्व शक्तिमान, न्यायी, दयावान व सर्व व्यापक सर्वज्ञ परमात्मा राजाके समान जगत का शासन करे तो जगन में कोई कुमार्ग में नहीं जा सकता, क्योंकि वह ज्ञानवल से प्रजाके मनकी बात जानकर अपनी विचित्र शक्ति से उसके मनको फेर देवे । जैसे राजा किसी को यह जानकर कि यह प्रजा द्रोही है, तुरन्त उसको रोक देते हैं । यदि वह दयावान व शक्तिशाली होकर रोके नहीं, पीछे दण्ड देढे, तो यह बात राज्यधर्म के विरुद्ध है । क्योकि कुमार्ग का प्रचार जगतमें बहुत अधिक है; इससे सिद्ध
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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