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________________ ( 48 ) जिससे तर्क वितर्क किया जावे व कारण कार्य का विचार किया जावे वह मन है। जो संकेत समझ सकंव शिना ग्रहण कर सके वह मनवाला पंचेन्द्रिय जीव है।। (२) यह जीव उपयोगवान है, ज्ञान दर्शन स्वरूप है। निश्चयनय से शुद्ध शान दर्शन को रखता है । व्यवहारनय से मतिज्ञान आदि पांच ज्ञान- मति, श्रत, विभग तीन अज्ञान तथा चनु-अचन अवधि केवल, ये चार दर्शन रखता है । इसी से हम जीव को पहिचानते हैं। जैसे जो शास्त्र पढता है वह श्रु तज्ञान का काम कर रहा है, इस से जीव है। सामान्यपने अवलोकन को दर्शन कहते हैं, विशेष जानने को शान कहते हैं । आंख से देखना 'चक्षुदर्शन' है । अांख को छोडकर शेष चार इन्द्रिय व मनसे देखना अचक्षु दर्शन' है। आत्मा स्वय रूपी पदार्थ को जिससे देखे वह 'अवधि दर्शन' है। जिससे सव देखा जाये वह केवल दर्शन है । जब इन्द्रिय और पदार्थ की भेट होती है, तव दर्शन होता है। फिर जो जाना जाय वह ज्ञान है। ज्ञान का वर्णन प्रमाण-नयक अध्याय में किया गया है। (३) यह जीव कर्ता है-निश्चयनय से यह अपने ज्ञान भाव व वीतराग भाव का ही कर्ता है,व्यवहार नयसे यह रागद्वेष मोहादिभावों का कर्ता व उन भावों के निमित्त से पाप पुण्यमई कर्मों का बांधने वाला है व घटपट आदि का का है। ४) यह जीव भोक्ता है-निश्चयनय से अपने शुद्ध. ज्ञानानन्द का भोगता है, व्यवहारनय से पाप पुण्य के फल रूप सुख दुःखों को भोगता है।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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