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________________ सिवनी, जबलपुर, नागपुर, देहली, आगरा, कानपुर, लखनऊ, बनारस, प्रगग, पारा, भागलपुर, गया, हज़ारीबाग, कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, फीरोज़पुर, सहारनपुर, हाथरस, मथुरा, कोटा, झालरापाटन, बड़ौदा, अहमदाबाद, सूरत, बम्बई, शोलापुर, कोल्हापुर, बेलगांव, मैसूर, बङ्गलौर, श्रवणबेलगोल हेलबिड, मूलबद्री, कांची, गिरनार, पालीताना, आबू आदि हज़ारों स्थानों पर मौजूद हैं। यहां ये जैन लोग नित्य भक्ति करते और धर्म साधन करते हैं। बौद्धोंका भारतमें न रहना और जैनियों का बने रहना, इस प्रश्न पर यदि ध्यान से विचार किया जाय तो विदित होगा किदोनोंको हिन्दू धर्मके प्रसिद्ध प्रचारक शंकर,रामानुज, चैतन्य आदि का मुकाबला करना पड़ा था। इस मुकाबले में बहुत स्थलों पर बौद्धमत की हार हुई, क्योंकि उनके सिद्धांत में आत्माको नित्य अविनाशी नहीं माना है, किन्तु क्षणिक माना है और जैनमत की विजय हुई। क्योंकि जैन सिद्धान्त ने आत्मा की सत्ता को नित्य मानकर उसकी अवस्थाओको मात्र क्षणिक या अनित्य माना है । हिन्दुओं के राज्यकीय बलके प्रभाव से बहुतसे बौद्ध हिन्दुओं में शामिल होगए-कुछ धीरे धीरे नष्ट होगए । यह राज्यकीय बल जैनियों की तरफ़ भी बहुत वेगसे प्रयोग किया गया था, परन्तु जैनियों में अहिंसामयी नीतिपूर्ण वर्तन व व्यापार-कुशलताका इतना प्रभुत्व था कि जनताने इन का सम्बन्ध नहीं छोड़ा व इनके सिद्धान्त इतने मनमोहनीय थे कि निरपक्ष विद्वान उनका श्रादर करते रहे तथा जैनधर्म के मानने वाले राजा लोग भी १७ वी शताब्दी तक अपना महत्व जमाए रहे । इस कारण जैनी भारतवर्ष में बराबर डटे रहे।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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