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________________ ( ४५ ) १७. जैनोंके लिए पूजनीय देव, शास्त्र, गुरु तत्वज्ञान होने के लिए यह श्रावश्यक है कि हम को उस आदर्श आत्मा का ज्ञानहां जो तत्वज्ञानकी पूर्ण मूर्ति हो: ऐसी ही श्रात्मा को देव कहते हैं । हम संसारी प्राणियों में अज्ञान और कोध, मान, माया. लोभ से दोष लगे हैं। जिनके पास यह दोष नहीं हैं वे ही सर्वत्र सर्वदर्शी और वीतराग परम शान्त देव हैं। उनके दो भेद है: एक सकल या शरीर सहित परमात्मा, दूसरे निकल या शरीर रहित परमात्मा । सकल परमात्मा को अरहन्त कहते हैं। वे जीवन्मुक्त परमात्मा श्रायु पर्यन्त धर्मोपदेश करते हैं । जव शरीर रहित हो जाते हैं तब वे शुद्ध श्रात्मा सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं । * 3 * टु चदु धाइ कम्मो दंसण सुहणारा वीरियमइयो । सुहृदेहत्थो अप्पा सुद्धो रिहो विचि तिजो ॥ (द्रव्यसंग्रह ) भावार्थ- जिन्होंने ज्ञानावरणीय, दर्शनावर्णीय मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिया कर्मों को नाश कर दिया है और जो अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तबलधारी हैं, परम सुन्दर शरीर में विराजित हैं, वीतराग श्रात्मा है, सो अरहन्त है; ऐसा विचारना चाहिये । ठठ्ठ कम्म देहो लोयालोयस्स जाणश्रो ढठ्ठा । पुरुसायारो अप्पा सिद्धो भारह लोयसिहरत्थो ॥ (द्रव्यसंग्रह ) भावार्थ- जिन्होंने श्राठों कर्मोंको और शरीरको नष्ट कर दिया है, जो लोक अलोक के ज्ञाता दृष्टा है, पुरुषाकार श्रात्मा हैं व लोक के शिखर पर विराजमान हैं, सो ही सिद्ध हैं।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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