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________________ - ( ३८ ) आत्मा बिलकुल नित्य ही है, तब वह जैसा का तैसा रहेगा, रागद्वेषी न होगा। न कर्मों को बांधेगा, न संसार में भ्रमण करेगा, न मुक्त होगा और यदि कहें कि आत्मा बिलकुल अनित्य ही है तब क्षणमात्र में नष्ट होने से उस का पाप पुण्य भी नष्ट होगा, वह अपने कार्य के फलको नहीं पा सकेगा, फिर यह ज्ञान भी न रहेगा कि मै बालक था-सो ही मैं जवान हूँ। इसलिये जब ऐसा माना जायगा कि आत्मा द्रव्य व गुणोंका दृष्टि से नित्य है, परन्तु अवस्था बदलने की अपेक्षा अनित्य है, तब कोई विरोध नहीं आ सकता है । तबही यह कहना होगा, कि यद्यपि मैं बालकपने को छोड़कर युवा होगया हूँ, तथापि मैं हूँ वही, जो चालक था। सप्त भङ्ग नयापेक्षा हेयादेय विशेषकः ॥ १० ॥ (आप्तमीमांसा) भावार्थ-स्यात् एक अव्यय है जिसके अर्थ'किसी अपेक्षा से हैं। यह स्यात् शब्द वाक्यों में जोड़ने से यह दिखलाता है कि इस पदार्थ में अनेक धर्म या स्वभाव हैं तथा वह वाक्य से जिस स्वभाव को कहता है उस की मुख्यता करता है और स्वभावों को गौण करता है ऐसा प्राप्त केवली-महा. राजों का मत है। यह स्यावाद सिद्धान्त सर्वथा एकान्त का त्याग कराने वाला है अर्थात् वस्तु अनेक धर्म स्वभाव है, ऐसा न मानकर एक रूपही है, इस मिथ्याभावको हठाने वाला है। इसी से किसी अपेक्षा से ऐसा है, ऐसी विधि करने वाला है तथा मुख्य गौण की अपेक्षा से सात मॅग से कहने वाला है। जिस बात को उस समय ज़रूरी समझता है उसको ग्रहण करता है, दूसरी बातों को उस समय छोड़ देता है।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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