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________________ ( २१ ) (६) मीमांसा दर्शन-यह दर्शन भी ईश्वर की सत्ता नहीं मानता है। यह शब्द को तथा वेढी को अनादि अपौरुषेय मानता है । यज्ञादि कर्म को ही धर्म मानता है। "वेदस्य अपौरुषेयतया निरस्त समस्त शङ्का कलंकांकुरत्वेन स्वतः सिद्धम्"। [सर्वदर्शनसंगृह पृ० २१८] ___ भावार्थ-सर्व शङ्कारूपी कलंक के अंकुर नाश होने पर वेद बिना किसी का किया हुचा सिद्ध है। जैन दर्शन कहता है कि जो शब्द होठ तालु आदि से बोले जाते हैं, उनका रचने वाला कोई पुरुष ही होना चाहिये। बिना रचना के उाका व्यवहार नही हो सकता । वे लिखने पढ़ने में आते है । ज्ञान को प्रवाहरूप अनादि कह सकते है, किन्तु प्रगटता किसी पुरुष विशेष से होती है ऐसा मानना चाहिये । शब्द नित्य नहीं हो सकता,क्योंकि वह दो जड़ पदार्थों के सम्बन्ध से भाषा वर्गणानाम जड़ पुद्गल की एक अवस्था विशेष है । अवस्था सब क्षणिक हैं । जिन पुद्गलों से शब्द बना है, वे मूल में नित्य हैं । अहिंसारूप यज्ञ, पूजा आदि स्वर्ग के कारण हो सकते हैं, पशु हिंसारूप नहीं परन्तु मुक्ति का कारण तो एक शुद्ध आत्मसमाधि है; वहां क्रियाकाण्ड की कल्पना ही नहीं रहती है। (७) बौद्ध दर्शन-बौद्ध भी ईश्वर को जगतकर्ता नहीं मानता तथा किसी पदार्थ को नित्य न मानकर सबको क्षणिक मानता है। “यत् सत् तत् क्षणिक” (सर्वदर्शन संग्रह पृ० २० छपा सं० १९६२)। भावार्थ-जो जो सत् पदार्थ हैं सब क्षणभंगुर हैं । जैन
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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