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________________ ( १४ ) ६. जैनों की मूल मान्यताएँ ( १ ) यह लोक अनादि अनन्त अकृत्रिम है | चेतन श्रचेतन छः द्रव्यों से भरा है । अनन्तानन्त जीव भिन्न २ है । अनंतानन्त परमाणु जड़ हैं । (२) लोक के सर्वही द्रव्य स्वभाव से नित्य है, परन्तु अवस्था को बदलने की अपेक्षा श्रनित्य है । (३) संसारी जीव प्रवाद की अपेक्षा अनादि से जड़, प पुराय मई कर्मों के शरीर से संयोग पाये हुए, अशुद्ध हैं । ( ४ ) हर एक संसारी जीव स्वतन्त्रता से अपने शुद्ध भावों द्वारा कर्म बांधता है और वही अपने शुद्धभावो ने कर्मों का नाश कर मुक्त हो सकता है । (५) जैसे स्थूल शरीर में लिया हुआ भोजन पान aire afrat बन कर अपने फल को दिया करता है, ऐसे ही पाप पुण्य मई सूक्ष्म शरीर में पाप पुण्य स्वयं फल प्रकट करके श्रात्मा में क्रोधादि व दुःख सुख झलकाया करता है । कोई परमात्मा किसी को दुःख सुख देता नहीं । (६) मुक्तजीव या परमात्मा श्रनन्त हैं । उन सबकी सत्ता भिन्न २ है । कोई किसी में मिलता नही। सब ही नित्य स्वात्मानन्द का भोग किया करते हैं। तथा फिर कभी संसार श्रवस्था में श्राते नहीं । (७) साधक गृहस्थ या साधु जन मुक्तप्राप्त परमात्माओंकी भक्ति व आराधना अपने परिणामोकी शुद्धिके लिए करते हैं । उनको प्रसन्नकर उनसे फल पानेके लिए नही ।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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