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________________ श्रादि सहित होती है उसी के लिए कर्ता की आवश्यकता है। अनादि पदार्थ के लिए कर्ता हो नहीं सकता । यह जगत स्वभाव से सिद्ध है अर्थात् इसके सब पदार्थ अपने स्वभाव से काम करते रहते हैं। ___ हरएक कार्यके लिए दो मुख्य कारण होतेहै-एक उपा. दान, दूसरा निमित्त । जो मूल कारण स्वयं कार्यरूप हो जाता है उसे उपादान कारण कहते हैं उसके कार्य रूप होने में एक व अनेक जो सहायक होते है उन को निमित्त कारण कहते हैं। जैसे पानी से भाफ का बनना, इसमें पानी उपादान तथा अग्नि आदि निमित्त कारण हैं । जगत में आग, पानी, हवा, मिट्टी एक दूसरे को बिना पुरुषार्थ के अपने अपने परिणमनों के अनुसार निमित्त होकर बहुतसे कार्यो में बदल जाते हैं। पानी बरसना, बहना, मिट्टीका बहजाना, कहीं जमकर पृथ्वी बनना बादलों का बनना, सूर्य का प्रकाशताप फैलना, दिन रात होना, ये सब जड़ पदार्थों का विकास है। निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध चितवन में नहीं आ सकता, न जाने कौन पदार्थ अपनी परिस्थिति के वश विकास करता हुआ किस के किस विकास का निमित्ति हो रहा है। ऐसे असंख्य परिणाम प्रतिक्षण हो रहे हैं। + लोओ अकिट्टिमो खलु प्रणाइ णिहणो सहाव णिप्पण्णा । जीवा जीवहिं भरोणिचो तालरुक्त संठाणो ॥ २२ ॥ a -मूलाचार ०८ अर्थ-यह लोक प्रकृत्रिम है, अनादि अनन्त है। स्वभाव ले ही अपने श्राप बना बनाया है, जीव अजीव पदार्थों से भरा है, नित्य है और ताड़ वृक्षके आकार है।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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