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________________ देशरक्षा, मसि (लिखना), कृषि, वाणिज्य, शिल्प व विद्या कर्म में होती है। ३. प्रारम्भी-जो गृहस्थ में मकान आदि बनवाने, खान-पानादि के व्यवहार में होती है। ४. विरोधी-किसी विरोधी शत्रु के साथ मुकाबला करते हुए जो हिंसा हो। इनमें से गृहस्थ जैन को संकल्पी हिंसा छोडनी आव. श्यक है। शेष तीन प्रकार की हिंसा तब तक त्याग नहीं कर सकता, जबतक गृहकर्म में लीन है. राज्य करता है, व्यापार करता है, कारीगरी करता है, स्त्री बच्चों व धनकी रक्षा करता है, विना न्यायरूप प्रयोजन के व अत्यन्त लाचारी के युद्धादि क्रिया जैन गृहस्थ नही करते है अर्थात् न्याय व अपने देश धनादि के रक्षार्थ जैन गृहस्थ युद्धादि कर सकते हैं। इस कथनसे पाठकगण समझ सकते है कि जैन मत ( impractical ) ऐसा नहीं है जो पाला न जासके। इसको सर्व ही नीच ऊँच स्थिति के सर्व मनुष्य पाल सकते हैं। इस जैनधर्म का साहित्य बहुत विस्ताररूपमें है, इसमें हज़ारों प्राकृत व संस्कृतके ग्रंथ है । जिनमें प्रायः सर्व ही विषय कहे गयेहैं । राजनीति, व्याकरण,न्याय,गणित, ज्योतिष, दर्शन, काव्य, अलङ्कार, मंत्रवाद, कर्मकांड, अध्यात्म आदि अनेक विषयों के बहुत से ग्रंथ है। साधारणतया जैनधर्म का ज्ञान
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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