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________________ ( १७७) गये और भूख प्यास से पीड़ित हो वन के फलादि व जल को खाने पीने लगे। इन लोगों ने भृष्ट हो कर अपने मनसे दंडो, त्रिदण्डी आदि मत स्थापन कर लिये । इनमें आदीश्वर प्रभु का पोता मारीच भी था। छ मासका योगपूर्ण कर प्रभू आहार के लिये नगर में गये। मुनिको आहार देनेकी विधि न जानने से छः मास तक प्रभुको अन्तराय रहा-भोजन न मिलसका। पीछे हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस को, जो पूर्व जन्ममें उनकी स्त्री रह चुका था, यकायक पूर्व जन्म की स्मृति हो आई। उसने विधि सहित वैशाख सुदी३ को इतुरस का आहार दिया। इसलिये इस मिती को अक्षय तृतीया कहते है। भगवान ने १००० वर्ष तक मौनी रह कर आत्म-ध्यान करते हुए, यत्र तत्र भ्रमण कर तप किया । अन्तमें फागुन वदी ११ को पुरमिताल नगर के निकट शकट वनमें चार घातिया कर्मों को. नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया, तव भगवान जीवन्मुक्त परमात्मा अरहन्त हो गये । इन्द्र ने समवशरण की रचना की। उपदेश प्रगटा और उससे अनेक जीवों ने जैनधर्म धारण किया। मुनि समुदाय के गुरु रूप गणधर ८४ हुए, जिनमें मुख्य वषमसेन, सोमप्रम, श्रेयांस थे । ब्राह्मी और सुन्दरी ने, जो ऋषभदेव की पुत्रियाँ थीं, विवाह न किया तथा प्रभु के पास आकर आर्यिका ( साध्वी ) हो गई और सव आर्यिकाओं में मुख्य हुई। कुल शिष्य भगवान के ८४०८४ साधु, ३५०००० आर्यि
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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