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________________ (१७४) सन्तोष से व मन्द कषायसे कालक्षेप करते थे। अन्तमें वे एक जोडा उत्पन्न कर मर जाते थे। ये कुलकरमहापुरुष विशेष ज्ञानी होतेथे। नाभि राजाक समय में कल्पवृक्ष विल्कुल न रहे, तब नाभि ने लोगों को वर्तन बनाने व वृक्षादि से धान्य व फलादि को काम में लाने आदि की रीति बताई । इनकी महाराणी मरुदेवी बड़ी रूपवती व गुणवती थी। श्री ऋषभदेवके गर्भ में पानेके पहिलेही छ: मास इन्द्रने अयोध्या नगरी स्थापित करके शोमा करी । मिती प्राषाढ़ सुदीरको भगवान मरुदेवीके गर्भमे आये । चैत्र कृष्ण की प्रभु का जन्म हुआ । स्वभाव से ही विद्वान् श्रीऋषभदेव ने कुमारकाल को विद्या, कला आदि का उपभोग करते हुए विताया। युवावय में नाभिराजा ने राजा कच्छ महाकच्छ की दो कन्या यशस्वती ओर सुनन्दा से प्रभु का विवाह किया। यशस्वती के सम्बन्ध से भरत, वृषभसेन, अनन्तविजय, महासेन, अनन्तवीर्य आदि १०० पुत्र व एक कन्या ब्राह्मी उत्पन्न हुई। सुनन्दा के द्वारा पुत्र वाहुवली व पुत्री सुन्दरी उत्पन्न हुई। प्रभुने विद्या पढानेका मार्ग चलानेके लिये सबसे पहिले दोनो पुत्रियोको अक्षर व अङ्क विद्या, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, काव्यादि विद्यायें सिखाईव एक १०० अध्यायों में स्वायभुव नाम का व्याकरण बनाया, फिर १०१ पुत्रों को अनेक विद्यायें लिखाई । विशेष २ विद्याओं में विशेष पुत्रों को बहुत प्रवीण किया-जैसे भरत को नीतिमें, अनन्त विजय को, चित्रकारी व शिल्पकला में, वृषभसेन को सङ्गीत और वादन में, बाहुबलि को वैद्यक, धनुष विद्या और काम शास्त्र में, इत्यादि।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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