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________________ (१६३) २. व्रत लाभ किया-शिष्य धर्म को सुनकर उस पर श्रद्धा करता हुआ स्थूल रूपले पाँच अणुव्रत ग्रहण करता और मदिरा मधु, मांस, तीन मकार का त्याग करता है। ३. स्थानलाम-शिष्य को एक उपचास व पूजा करा कर उसको पवित्र करे च णमोकार मन्त्र का उपदेश देवे । ४. गण गृह-शिष्यके घरमें जो अन्य देवों की स्थापना हो तो उनका विसर्जन करे। ५. पजाराध्य भगवान की पूजा करे, द्वादशांग जिनवाणी सुने व धारे। ६. पुण्य यज्ञ किया-१४ पूर्व शिष्य सुने। ७. दृढ़ चर्या-जैन शास्त्रों को जान कर अन्य शास्त्रों को जाने। ८. उपयोगिता-हर अष्टमी चौदस को उपवास करे, ध्यान करे। 8. उपनीति-इस को यज्ञोपवीत ग्रहण करावे । १०. व्रतचयों-जनेऊ लेकर कुछ काल ब्रह्मचर्य पाल गुरु से उपासकाभ्ययन या श्रावकाचार पढ़े। ११. व्रतावरण-गृहस्थाचार्य के निकट ब्रह्मचारी का भेष उतारे। १२, विवाहजो पहिली विवाहिता स्त्री हो तो श्राविका बनावे | यदि न हो तो वर्णलाभक्रिया करके विवाह करे। १३. वर्णलाभ-गृहस्थाचार्य इसकी योग्यता देखकर
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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