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________________ ( १६०) [१८] वर्णनाभक्यिा-माता पिता से द्रव्य ले स्त्री सहित जुदा रहना। [१६] कुलचर्या किया-कुल के योग्य आजीविका करके देव पूजादि गृहस्थ के छ कर्मों में लीन रहना [२०] गृहीशिता किया-ज्ञान व सदाचारादि में प्रवीण होकर गृहस्थाचार्य का पद पाना, परोपकार करने में लीन रहना, विद्या पढ़ाना, औषधि देना, भय दूर करना। [२१] प्रशांति किया-पुत्र को घर का भार सौंप आप विरक्त भाव से रहना। [२२] गृहत्याग किया-घर छोड़ कर त्यागी हो जाना। [२३] दीक्षाद्य किया--श्रावक की ग्यारह प्रतिमानो को पूर्ण करना। [२४] जिनरूपिता किया-नग्न हो वस्त्रादि परिग्रह त्याग मुनिपद धारण करना। [२५ ] मौनाध्ययन वत्ति किया-मौन सहित शास्त्र पढ़ना। ___ [२६] तीर्थङ्कर पदोत्पादक भावना-सोलह कारण भावना विचारनी। [२७] गुरुस्थापनाभ्युपगम-प्राचार्य पद के काम का अभ्यास करना। [२८] गणोपग्रहण---उपदेश करना,मायश्चित देना।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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