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________________ ( १४२ ) ६६. श्रावक का साधारण चारित्र एक श्रद्धावान श्रावक गृहस्थ को साधारणपने श्रात्मा की उन्नति के हेतु से नित्य नीचे लिखे छः कर्मों का अभ्यास अपनी शक्तियों के अनुसार करना चाहिए : (१) देवपूजा-अरहन्त और सिद्ध भगवान का पूजन करना जिसका वर्णन नं० १८ में किया जा चुका है | (२) गुरु भक्ति - श्राचार्य, उपाध्याय या साधु की भक्ति और सेवा करना व उन से उपदेश लेना । (३) स्वाध्याय- प्रमाणीक जैनशास्त्रोंको रुचिसे पढना, सुनना, उनके भावों का मनन करना । (४) संयम - ५ इन्द्रिय और मन पर काबू रखने के लिए नित्य सवेरे २४ घण्टे के लिये भोग व उपभोग के पदार्थों का अपने काम के लायक रख के शेष का त्याग कर देना । जैसे आज मिष्ट पदार्थ न खायेंगे, सांसारिक गान न सुनेंगे, वस्त्र इतने काम में लेंगे आदि तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन छः प्रकार के जीवों की रक्षा का भाव रखना, व्यर्थ उनको कष्ट न देना । (५) तप - अनशन आदि १२ प्रकार तप का अभ्यास जिस का वर्णन नं० ५२ में किया जा चुका है। मुख्यता से ध्यान का प्रातः, मध्यान्ह, संध्या तीन दफ़े या दो दफ़े अभ्यास करना, जिसको सामायिक कहते हैं। सामायिक की रीति यह है कि एकान्त स्थानमें जाकर पवित्र मन, वचन, काय करके, एक शासन नियत करके और यह परिमाण करके कि जब तक सामायिक करता हूँ इस
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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