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________________ ( =) ठीक नहीं है और न यह हिन्दूमत की हो शाखा है । क्योंकि सांख्य मीमांसादि दर्शनों से इसका दार्शनिक मार्ग भिन्न ही प्रकार का है, जो इस पुस्तक के पढ़ने से विदित होगा । जैनमत की शिक्षा सीधी और वैराग्यपूर्ण है। हर एक गृहस्थ को निम्न छः कर्म नित्य करने का उपदेश है (१) देवपूजा, (२) गुरु भक्ति, (३) शास्त्र पढना, ( ४ ) सयम (Self control or temperance) का अभ्यास, (५) तप ( सामायिक या संध्या या ध्यान या meditation), (६) दान ( श्राहार, औषधि, अभय तथा विद्या ) । उनको निम्न श्राठमूल गुणोंके पालने का उपदेश भी है:मद्य मांस मधु त्यागैः सहाव्रत पंचकम् । अष्टौ मलगुणाना दुर्गृहीयां श्रमशोत्तमाः ॥ । - अर्थात् मद्य या नशा न पीना, मांस न खोना, मधु ग्रानी शहद न खाना, क्योंकि इनमें बहुत से सूक्ष्म जंतुओं का नाश होता है: पाँच पापोंसे बचना श्रर्थात् जान बूझकर वृथा पशु पक्षी श्रादि की हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चोरी न करना अपनी स्त्री में संतोष रखना, परिग्रह या सम्पत्ति की मर्यादा कर लेना जिससे तृष्णा घटे । इनको गृहस्थों के आठ मूलगुण उत्तम श्राचार्यों ने बतलाया है। हमारे जैनेतर भाई देख सकते हैं कि यह शिक्षा भी हर एक मानव को कितनी उपयोगी है। यद्यपि और धर्मों में भी श्रहिंसा तथा दयाका उपदेश है व मांसाहार का निषेध है, परन्तु उनका श्राचरण जैनियों के सदृश नहीं है। कारण यही है कि कहीं २ उनके पीछेके टीकाकारोंने इस उपदेश में शिथि
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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