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________________ ( १३४ ) १ कार्ड वेदनीय, वज्र वृषभ नाराच संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुम्वर, दुःस्वर, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपांग, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्था नादि ६ संस्थान, स्पर्शादि ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्वास, प्रत्येक । जो उदय में रहीं वे १२ ये है १ वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, उच्चगोत्र, तीर्थङ्कर । नोट- जो तीर्थङ्कर नहीं होते उनके ११ का ही उदय रहता है। सत्ता की थी, परन्तु अन्त समय के पहले समय में ७२, फिर अन्त में १३, इस तरह कुल ८५ का क्षय कर १४ वे गुणस्थान से छूटते ही कर्मों की सत्ता से छूट जाते हैं और सिद्ध परमात्मा निजानन्दी हो जाते हैं। यह कथन अनेक जीवों की अपेक्षा है । एक कोई जीव मनुष्य हो या पशु हो या देव हो या नारकी हो व एकेन्द्रिय द्वेन्द्रिय आदि हो उसका कथन श्री गोम्मटसार कर्मकाण्ड से देखना चाहिये । उपरोक्त कथन निम्न नक्शे से स्पष्ट समझ लेना चाहिये नाम गुणस्थान मिथ्यात्व सासादन बंध ११७ १०१ - नक्रशा उदय ११७ १११ सत्ता १४८ १४५
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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