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________________ ( १९३ ) किसी साधुने यह नियम लिया कि कोई पुरुष विल्कुल सादी धोती और दुपट्टा ओढ़े हुए यदि भक्तिसे भोजन देगा तो लेंगे। प्रण पूर्ण न होने पर भिक्षासे लौट आना व समता भाव रखना । ( ४ ) रसपरित्याग — दूध, दही. घी, शक्कर (मिटरस), तैल निमक इन छः रसोंमें से एक व अनेक का जन्म• पर्यन्त व मर्यादा रूप त्यागना तथा रस से मोह न कर केवल उदर भरने को भोजन करना । (५) विविक्त शय्यासन -ध्यान की सिद्धि के लिए एकान्त में सोना बैठना । (६) कायक्लेश – शरीर के सुखियापने को हटाने के लिए शरीर को कठिन २ क्लेश देकर भी मनमें दुःख न मानकर हर्षित होना । जैसे धूप में खड़े हो ध्यान करना, कंकड़ों पर लेट जाना आदि । (२) अन्तरङ्ग तप के छः भेद : [१] प्रायश्चित - दोष होने पर उस का दण्ड लेकर दोष को मेटना । यह दण्ड निम्नलिखित नौ तरहका होता है :१. आलोचना - गुरुके पास सरल भावसे दोष कह देना । २. प्रतिक्रमण - एकान्त में बैठकर दोपका पश्चाताप करना । ३. तदुभय - ऊपर के दोनों कामों को करना । ४. विवेक - किसी पदार्थ का जैसे दूध, घी आदि का कुछ काल के लिए त्याग देना । ५. व्युत्सर्ग-कायसे ममता त्याग एक या अनेक कायोत्सर्ग
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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