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________________ ४. दर्शन मोहनीय बन्ध के विशेष भाव १ केवली अरहंत भगवान की मिथ्या धुराई करना २ सच्चे शास्त्रों में भठा दोष लगाना ३ मुनि, प्रायिका श्रावक, श्राविका के सङ्घ में मिथ्या दोष लगाना ४ सचे धर्म की बुराई करना ५ देवगति के प्राणियोंकी मिथ्या वुराई करना कि देवतागण माँस खाते है श्रादि । ५. चारित्र मोहनीय बन्ध के भाव क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय भावों में बहुत तीव्रता रखनी। ६. नरकायु बन्ध के विशेष भाव मर्यादा से अधिक बहुत प्रारम्भ व्यापार करना और संसार के पदार्थों में अन्ध होकर ममत्व रखना। ७. तिथंचायु बन्ध के भाव परिणामों में कुटिलाई या मायाचार रखना। ८. मनुष्यायु बंध के भाव मर्यादारूप थोड़ा प्रारम्भ व व्यापार करना और थोड़ा ममत्व रखना तथा स्वभाव से कोमल और विनयरूप रहना। ६. देवायु के बंध के विशेष भाव सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्चे तत्वों में विश्वास रखना २ साधु का संयम ३ श्रावक का संयम ४ समताभाव से दुख सहना ५ तपस्या करना आदि । १०. अशभ नाम कर्म के भाव १ मनको कुटिल रखना २ वचन मायाचार रूप कुटिल
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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