SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८२ ) इनको परस्पर गुणा करनेसे ८० भेद होते हैं । १ प्रमाद भाव में १ इन्द्रिय, १ कषाय, १ विकथा तथा निद्रा और स्नेह ये पांचों पाये जायेंगे। जैसे किसी ने जिला के लोभ से चोरी करने का भाव किया, इस में जिह्वा इन्द्रिय, लोभ कषाय, भोजन विकथा, निद्रा व स्नेह पांचों हैं। ( ४ ) कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ, चार प्रकार । ( ५ ) योग -- तीन प्रकार मन, वचन, काय का हलन चलन । इस तरह भावास्रव के ३२ भेद है । वास्तवमे श्रात्मा में एक योग शक्ति है जो पुद्गलों को खींचती है। जिस समय मन, वचन, काय की क्रियां होती है उसी समय श्रात्मा सकम्प हो जाता है तब ही योग शक्ति मिथ्यात्व आदि के कारण' से विशेषरूप होती हुई कर्मों को और नो कर्मों (औदारिक आदि के बनने योग्य स्कन्धों ) को खींच लेती है। ३५. बन्धतत्व जिन श्रात्मा के भावों व हरकतों से कर्म वर्गणायें जो बँधने को आई हैं श्रात्मा के पूर्व में बँधे हुए कर्मों के साथ मिलकर आत्मा के प्रदेशों में ठहर जाती हैं उनको भावबन्ध " * मिच्छत्ता विरदिपमाद जोगकोहादोऽथ विराणेया । पण पण पण दहतिय चटु क्रमसोभेदादु पुव्वस्स ||३०|| ( द्रव्य संग्रह )
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy