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________________ दो शब्द है । उसकी भाषामें परका तिरस्कार न होकर उसके अभिप्राय, विवक्षा और अपेक्षा दृष्टिको समझनेकी सरल वृत्तिआ जाती है । और इस तरह भाषा मेंसे आग्रह यानी एकान्तका विष दूर होते ही उसकी स्याद्वादामृतगर्भिणी वाक्सुधासे चारों ओर संवाद, सुख और शान्तिकी सुषमा सरसने लगती है, सब ओर संवाद ही संवाद होता है, विसंवाद, विवाद और कलह-कण्टक उन्मूल हो जाते हैं । इस मनः शुद्धि यानी अनेकान्तदृष्टि और वचनशुद्धि अर्थात् स्याद्वादमय वाणीके होते ही उसके जीवन-व्यवहारका नक्शा ही बदल जाता है, उसका कोई भी आचरण या व्यवहार ऐसा नहीं होता, जिससे कि दूसरेके स्वातन्त्र्यपर आँच पहुँचे । तात्पर्य यह कि वह ऐसे महात्मत्वकी' ओर चलने लगता है, जहाँ मन, वचन और कर्मकी एकसूत्रता होकर स्वस्थ व्यक्तित्वका निर्माण होने लगता है । ऐसे स्वस्थ स्वोदयी व्यक्तियों से ही वस्तुतः सर्वोदयी नव समाजका निर्माण हो सकता है और तभी विश्वशान्तिकी स्थायी भूमिका आ सकती है | भ० महावीर तीर्थङ्कर थे, दर्शनङ्कर नहीं । वे उस तीर्थ अर्थात् तरनेका उपाय बताना चाहते थे, जिससे व्यक्ति निराकुल और स्वस्थ बनकर समाज, देश और विश्वकी सुन्दर इकाई हो सकता है । अतः उनके उपदेशकी धारा वस्तुस्वरूपकी अनेकान्तरूपता तथा व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी चरम प्रतिष्ठापर आधारित थी । इसका फल है कि जैनदर्शनका प्रवाह मनः शुद्धि और वचनशुद्धि मूलक अहिंसक आचारकी पूर्णताको पाने की ओर है । उसने परमत में दूषण दिखाकर भी उनका वस्तुस्थिति के आधारसे समन्वयका मार्ग भी दिखाया है। इस तरह जैनदर्शनकी व्यावहारिक उपयोगिता जीवनको यथार्थ वस्तुस्थितिके आधारसे बुद्धिपूर्वक संवादी बनाने में है और किसी भी सच्चे दार्शनिकका यही उद्देश्य होना भी चाहिये । प्रस्तुत ग्रन्थमें मैंने इसी भावसे 'जैनदर्शन' की मौलिक दृष्टि समझानेका प्रयत्न किया है । इसके प्रमाण, प्रमेय और नयकी मीमांसा तथा स्याद्वाद - विचार आदि प्रकरणों में इतर दर्शनोंकी समालोचना तथा आधुनिक भौतिकवाद और विज्ञानकी मूल धाराओं का भी यथासंभव आलोचन - प्रत्यालोचन करनेका प्रयत्न किया है । जहाँ तक परमत-खण्डनका प्रश्न है, मैंने उन उन मतोंके मूल ग्रन्थोंसे वे अवतरण दिये हैं या उनके स्थलका निर्देश किया है, जिससे समालोच्य पूर्वपक्षके सम्बन्धमें भ्रान्ति न हो । इस ग्रन्थमें १२ प्रकरण हैं । इनमें संक्षेपरूपसे उन ऐतिहासिक और तुलनात्मक विकास - बीजों को बताने की चेष्टा की गई है, जिनसे यह सहज समझ में आ सके कि “मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् " । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १९ www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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