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________________ १४ जैनदर्शन ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्यमें कापिल-सांख्य दर्शनके लिये स्पष्टतः अवैदिक कहा है।' इस कथनमें हमें तो कुछ ऐसी ध्वनि प्रतीत होती है कि उसकी परम्परा प्राग्वैदिक या वैदिकेतर हो सकती है। जो कुछ भी हो, ऋग्वेद-संहितामें जो उत्कृष्ट दार्शनिक विचार अंकित हैं, उनकी स्वयं परम्परा और भी प्राचीनतर होना ही चाहिये। ___ जैन दर्शनकी सारी दार्शनिक दृष्टि वैदिक दार्शनिक दृष्टिसे स्वतन्त्र ही नहीं, भिन्न भी है, इसमें किसीको सन्देह नहीं हो सकता। हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उपर्युक्त दार्शनिक धाराको हमने ऊपर जिस प्राग्वैदिक परम्परासे जोड़ा है, मूलतः जैन दर्शन भी उसीके स्वतन्त्र विकासको एक शाखा हो सकता है। उसकी सारी दृष्टिसे तथा उसके कुछ पुद्गल जैसे विशिष्ट पारिभाषिक शब्दोंसे इसी बातकी पुष्टि होती है। जैन दर्शनका विशेष महत्त्व : परन्तु जैन दर्शनका अपना विशेष महत्त्व उसकी प्राचीन परम्पराको छोड़कर अन्य महत्त्वके आधारों पर भी है। किसी भी सात्त्विक विमर्शका विशेषतः दार्शनिक विचारका महत्त्व इस बातमें होना चाहिये कि वह प्रकृत वास्तविक समस्याओंपर वस्तुतः उन्हींकी दृष्टिसे किसी प्रकारके पूर्वाग्रहके बिना विचार करे। भारतीय अन्य दर्शनोंमें शब्दप्रमाणका जो प्रामुख्य है वह एक प्रकारसे उनके महत्त्वको कुछ कम ही कर देता है। उन दर्शनोंमें ऐसा प्रतीत होता है कि विचारधाराको स्थूल रूपरेखाका अङ्कन तो शब्द-प्रमाण कर देता है और तत्तदर्शन केवल उसमें अपनेअपने रङ्गोंको ही भरना चाहते हैं। इसके विपरीत जैनदर्शनमें ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बिलकुल साफ स्लेट ( Tabula Rasa ) पर लिखना शुरू करता है। विशुद्ध दार्शनिक दृष्टिमें इस बातका बड़ा महत्त्व है। किसी भी व्यक्तिमें दार्शनिक दृष्टिके विकासके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह स्वतन्त्र विचारधाराकी भित्तिपर अपने विचारोंका निर्माण करे और परम्परा-निर्मित पूर्वाग्रहोंसे अपनेको बचा सके। उपर्युक्त दृष्टिसे इस दृष्टिमें मौलिक अन्तर है। पूर्वोक्त दृष्टिमें दार्शनिक दृष्टि शब्दप्रमाणके पीछे-पीछे चलती है, और जैन दृष्टिमें शब्दप्रमाणको दार्शनिक दृष्टिका अनुगामी होना पड़ता है। १. 'न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं श्रद्धातुं शक्यम्' ।। -ब्र० सू० शां० मा० २।१।१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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