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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १६३ नही है ' - इस प्रकार समझता है इसी तरह, (२) वेदनाको (३) सज्ञाको (४) सस्कारको, (५) विज्ञानको, (६) उसे कुछ भी देखा सुना या मनद्वारा अनुविचारित है उसको जो यह (छ) इष्टि स्थान है सो लाक है सो आत्मा है इत्यादि । यह मेरा आत्मा नहीं है । इस प्रकार समझता है । वह इस प्रकार समझते हुए अशनित्रास (मल) को नहीं प्राप्त होता । क्या है बाहर अशनिपरित्रास - किसीको ऐसा होता है अहो पहले यह मरा था, जो अब यह मरा नहीं है, महो मरा होवे, अहो उसे मै नहीं पाता हू । वह इस प्रकार शोक करता है दुखित होता है, छाती पीटकर क्रन्दन करता है । इस प्रकार बाहर शनिपरित्रास होता है । क्या है बाहरो अशनि - अपरित्रास जिस किसी भिक्षुको ऐसा नहीं होता यह मेरा या, अहो इसे मै नहीं पाता हू वह इस प्रकार शोक नहीं करता है, मूर्छित नहीं होता है । यह हैं बाहरी अशनि - अपरित्रास | क्या है भीतर अशनिपरित्रास - किसी भिक्षुको यह दृष्टि होती है । सो लोक है, सो ही आत्मा है, मै मरकर सोई नित्य, ध्रुव, शाश्वत निर्विकार होऊगा और अनन्त वर्षोंतक वैसे ही रहूगा । वह तथागत (बुद्ध) को सारे ही दृष्टिस्थानों के अधिष्ठान, पर्युत्थान (उठने), अभिनिवेश ( आग्रह ) और अनुशयों (मलों) के विनाशक लिये, सारे सरकारों को शमन के लिये, मारी उराधियोक परित्याग के लिये और तृष्णा के क्षय के लिये, विराग, निरोध ( रागादिके नाश ) और
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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