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________________ ९४] दूसरा भाग। व्यवहार विमूढदृष्टय परमार्थ कलयन्ति नो जना । तुषबोधविमुग्धबुद्धय कलयन्तीह तुष न तन्दुरम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ-जो व्यवहारदृष्टिमें मूढ है वे मानव परमार्थ सत्यको नहीं जानते है। जो तुषको चाक्क समझकर इस अज्ञानको मनमे धारते है वे तुषका ही अनुभव करते है, उनको तुष ही चावल भामता है। वे चावलको नहीं पासक्ते। निर्वाणको सत्यार्थ समझना यह भस मार दृष्टि है । समाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहने हैं देहान्तरगतेबीज देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीज विदेहनिष्पत्तेगत्मन्येवात्मभाषना ॥ ७४ ॥ भावार्थ-इम शरीरमें या शरीर सम्बन्धी सर्व प्रकार मसोंमें आपा मानना वारवार शरीरके पानेका बीज है। किंतु अपने ही निर्वाण स्वरूप में आपेकी भावना करनी शरीरसे मुक्त होन का बीज है। व्यवहारे सुषुप्तो य स जागत्यात्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥ ७८ ॥ मात्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिक महि । तयोरन्तर विज्ञानाद-पासादच्युतो भवेत् ॥ ७९ ॥ भावार्थ-जो व्यवहार दृष्टिमें सोया हुभा है अर्थात् व्यवहारसे उदासीन है वही आत्मा सम्बन्धी निश्चय दृष्टिसे जाग रहा है । जो व्यवहार में जागता है वह आत्माके अनुभव के लिये सोया हुमा है। अपने मात्माको निर्वाण स्वरूप भीतर देखके व देहादिकको बाहर देखके उनके मेदविज्ञानसे आपके अभ्याससे यह भविनाशी मुक्ति या निर्वाणको पाता है। मागे चलके इस सूत्रमें चार उपादानों का वर्णन किया है।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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