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________________ कथा-साहित्य ९७ करता हुआ लेखक कहता है- "श्रमण महावीर भगवान्‌की समामे सभी प्राणियोंको समानाधिकार रहता है। देव और अदेव, मनुष्य और पशुपक्षी, सत्र ऊँच और नीचके भेदको भूलकर समान आसनपर बैठते है, परस्पर विरोधी प्राणी अपने वैरको भूलकर स्नेहार्द्र हो जाते है । विश्वबन्धुत्व का सच्चा आदर्श वही देखा जाता है । जब विवेक जाग्रत हो जाता है तो मोहका अन्त होते विलम्ब नही होता - "मुझे कुछ न चाहिए कुमार, तुमने मुझे आज सच्चा रूप दिखाया है, तुम मेरे गुरु हो । आज मैं विजयी हुआ कुमार मुझे प्रायश्चित दो ।" 'अनन निरजन हो गया' कहानी मे बताया गया है कि विपयवासनाओसे झुलसा प्राणी ज्ञानकी नन्ही आभा पाते ही चमक जाता है । इस अमृतकी फुहरी बून्दें उसे अमर बना देती है । श्यामा गणिका मोहपाश आबद्ध अजन अपनी आत्मगक्तिपर स्वय चकित हो जाता है"चारों ओर प्रकाश छा गया । अंजनको अपनी सफलताका ज्ञान हुआ, पर सफलताके पश्चात् वीरोंको हर्प नहीं होता । उन्हें उपेक्षा होने लगती है ।" 'सौन्दर्यकी परख' मे भौतिक सौन्दर्य क्षणमगुर है, मिथ्या प्रतीतिके कारण इस सौन्दर्यके मोहपाशमें बँधकर व्यक्ति नानाप्रकारके कष्ट सहन करता है । जब भौतिक सौन्दर्यका नशा उतर जाता है तो यथार्थ अनुभव होने लगता है - " आपने यथार्थ कहा महाशय, प्रत्येक वस्तु क्षणिक है । यह विभव, यह शासन, यह शरीर और यह यौवन किसी न किसी क्षण नष्ट होंगे हो । मै आपका कृतज्ञ हूँ, आपने मेरी भूली आत्मा को सत्पथके दर्शन कराये ।" 'वसन्तसेना' कथामें बताया गया है कि जिन्हें हम संसार मे पतित और नीच समझते हैं, उनमे भी सचाई होती है। वे भी ईमानदार, दृढ़प्रतिज्ञ और कर्त्तव्यपरायण बन सकते है । वसन्तसेना केन्यापुत्री होकर भी पा तितके आदर्शका पूर्ण पालन करती है। प्रेमी चारुदत्तके अकिंचन ७
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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