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________________ ९३ हिन्दी-जैन-साहित्य परिगीलन तिलका नामकी वारवनिताके यहाँ ठहरा। कई महीनों के उपरान्त एक दिन इसी नगरीम स्वामी जम्वृकुमारके स्वागतकी तैयारी में सारा नगर अन्कृत किया जा रहा था। जब विद्युच्चरने महाराज श्रेणिकके माय जन्वृकुमारको देखा और उनका यथार्थ परिचय प्राम हुआ, तो उसके म्नमें भी अपने कायांके प्रति निचित्कसा उसन्न हुई। फलतः परिग्रहलां समत्त दुःखाका कारण ज्ञातकर वह भी विरक हो गया। कालान्तरम उसने भी जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की और अपना आत्म-कल्याण किया। इस कथाका सर्वस कथोपकथन है । कलाकारने कथाकी गनिलो किम प्रकार बढ़ाया है, यह निम्न उद्धरणांस स्पष्ट है । ___ "पिताजी, हेयोपादेय हो मी तो आपके कर्तव्य और अपने मार्गम उस दृष्टिस कुछ अन्तर नहीं जान पड़ता। आपको क्या इतनी एकान्त निश्चिन्तता, इतना विपुल सुख, सम्पत्ति, सम्मान और अधिकार-ऐश्वर्षका इतना ढेर, क्या दूसरेके भागको बिना छीने यन सकता है ? आप क्या समझते हैं, आप कुछ दूसरेका अपहरण नहीं करते ? भापका 'राजापन क्या और सबके 'प्रतापन' पर ही स्यापित नहीं है ? आपकी प्रभुता औरॉकी गुलामीपर ही नहीं खड़ी ? आपकी सम्पमता औरॉकी गरीवीपर सुख दुखपर, आपका विलास उनकी रोटीकी चीखपर, कोप उनके टैक्स पर, और आपका सबकुछ क्या उनके सबकुछका कुचलकर, उसपर ही नहीं खड़ा लहलहा रहा? फिर मैं उसपर चलता है तो क्या हर्ज है! हाँ, अन्तर है तो इतना है कि आपके क्षेत्रका विस्तार सीमित है, पर मेरे कार्यके लिए क्षेत्रको कोई सीमा नहीं; और मेरे कार्यके शिकार कुछ छ लोग होते हैं, जब कि आपका राजत्व छोटे-बडे, हान-सम्पन्च, बी. पुरुष, वञ्चे-चुने सबको एक-सा पासता है। इसीलिए मुझे अपना मार्ग ज्यादा ठीक मालूम होता है।" "कुमार, बहस न करो। कुकर्ममें ऐसी हठ भयावह है। राजा समाजतन्त्रके सुरक्षण और स्थायित्वके लिए भावश्यक है, चोर उस
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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