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________________ कथा-साहित्य ८५ व्रतपर दृढ रही। उसकी दृढताके कारण उसकी विपत्तियों काफूर होती गयीं। अन्तमे अपना नाम विमलवाहन रखकर उन्हीं सात कौड़ियों द्वारा व्यापार करती है। एक चोरका पता लगानेपर राजकुमारीके साथ विवाह और आधा राज्य भी प्राप्त कर लेती है। अमरकुमार भी व्यापारके लिए उसी नगरीमे आता है और बारह वर्पके पश्चात् दोनोका पुनः मिलन हो जाता है । मानिनी नारीकी प्रतिमा पूर्ण हो जाती है, और पुरुपका अहभाव नत हो जाता है। इस कृतिमे लेखकने नारी-तेज, उसकी महत्ता, धैर्य, साहस और अमताका पूर्ण परिचय दिया है । सकल्प और व्रतपर दृढ नारीके समक्ष अत्याचारियोके अत्याचार शान्त हो जाते हैं । पुरुप कितना अविश्वसनीय हो सकता है, यह सुर-सुन्दरीके निम्न कथनसे स्पष्ट है "विश्वासघातक, दुराचारी, धर्माधर्मविचारहीन, प्रतिज्ञाका भंग करनेवाले अथवा गजके समान स्त्रीको शेरकी तरह अपना भक्षण समझनेवाले पुरुषोंसे जितना दूर रहा जाय, उतना ही अच्छा है।" इस रचनाकी भापा विशुद्ध साहित्यिक हिन्दी है, उर्दू और फारसीके प्रचलित शब्दोका भी प्रयोग किया गया है। भापामें स्निग्धता, कोमलता और माधुर्य तीनो गुण विद्यमान हैं । शैली सरस है, साथ ही सगठित, प्रवाहपूर्ण और सरल है। रोचकता और सजीवता इस कथामे सर्वत्र विद्यमान है। कोई भी पाठक पढना आरम्भ करनेपर, इसे समाप्त किये विना विश्वास नहीं ले सकता है। प्रवाहकी तीव्रतामें पडकर वह एक किनारे पहुँच ही जाता है। __इस कथामें सती दमयन्तीके शील, पातिव्रत और गुणोकी महत्ता सती दमयन्ती र बतलायी गयी है। आदर्शकी अवहेलना आजके लेखक भले ही करते रहे, पर वास्तविकता यह है कि आदर्शके विना मानव-जीवन प्रगतिशील नहीं बन सकता है।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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