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________________ दो शब्द साहित्य ही मानवताका पोषक और उत्थापक है। जिस साहित्यमे यह गुण जितने अधिक परिमाणमे पाया जाता है, वह साहित्य उतना ही अधिक उपादेय होता है। जैन साहित्यमें आत्मशोधक तत्वोंकी प्रचुरता है, यह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही प्रकारके जीवनको उन्नत बनानेकी पूर्ण क्षमता रखता है। अतः जैन साहित्यको केवल साम्प्रदायिक कहना नितान्त भ्रम है। यदि किसी धर्मविशेषके अनुयायियो-द्वारा रचे गये साहित्यको साम्प्रदायिक माना जाय तो फिर शाकुन्तल, उत्तररामचरित, रामचरितमानस और पद्मावत जैसी सार्वजनीन कृतियाँ भी साम्प्रदायिक सीमासे मुक्त नहीं की जा सकेगी। अतः विश्वजनीन साहित्यका मापदण्ड यही है कि जो साहित्य समान रूपसे मानवको उद्बुद्ध कर सके, जिसमें मानवताको अनुप्राणित करनेकी पूर्ण क्षमता हो तथा जिसके द्वारा आनन्दानुभूति सम्भव हो सके। जैन साहित्यमे इन सार्वजनीन भावो और विचारोकी कमी नहीं है । सत्य अखण्ड है, यह किसी धर्मविशेषके अनुयायियोंके द्वारा विभक्त नहीं किया जा सकता है। और यही कारण है कि हिन्दी साहित्यमे एक ही अखण्ड भावधारा प्रवाहित होती हुई दिखलायी पड़ती है। भेद केवल रूपमात्रका है । जिस प्रकार कूप, सरोवर, सरिता और समुद्रके जलमे जलरूपसे समानता है, अन्तर केवल आधार या उपाधिका है, उसी प्रकार साहित्यमे एक ही शाश्वत सत्य अनुस्यूत है, चाहे वह जैों-द्वारा लिखा गया हो, चाहे बौद्धों द्वारा अथवा वैदिकों द्वारा। किसी धर्मविशेषके अनुयायियों द्वारा रचित होनेसे साहित्यमें साम्प्रदायिकता नहीं आ सकती। साहित्यका प्राण सत्य सबके लिए एक है, वह अखण्ड है और शाश्वत ।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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