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________________ ४१ पुरातन गद्य भाषा भी दुरूह मानी जाती है, पर विषयको हृदयंगम करनेमें इसका बडा महत्त्व है । उदाहरण के लिए कुछ पक्तियों उद्धृत की जाती है : 1 "यथा कोई वैद्य प्रत्यक्षपने विष कछु पीछे है तो फुनि नही मरे है और गुण जौने है तिहिं तें अनेक यातन जानै छै । तिहिं करि विषकी प्राणघातक शक्ति दूर कीनी है । वही विप खाय तो अन्य जीव तत्काल मरे, तिहि चिपसो बैद्य न मरै । इसी जानपनाको समर्थपनो छे अथवा कोई शूद्र जीच मतवालो न होइ जिसो थो तिसो ही रहे ।" कविवर बनारसीदास हिन्दी भाषाकै उच्चकोटिके कवि होनेके साथ गद्य रचयिता भी है। आगरामै बहुत दिनोतक रहने के कारण इनके गद्यकी भाषा व्रजभाषा है। इन्होने परमार्थ- वचनिका और उपादान-निमित्तकी चिट्ठी गद्यमें लिखी है । इनकी गद्यशैली व्यवस्थित है, भाषाका रूप निखरा हुआ है और क्रियापद प्रायः विशुद्ध व्रजभाषाके है । सस्कृतके कुछ क्रियापद भी इनकी भाषामे विद्यमान है। लिख्यते, कथ्यते, उच्यते जैसे क्रियापदोका प्रयोग भी यथास्थान किया गया है। संस्कृतके तत्सम शब्द विपुल परिमाणमें वर्तमान हैं। बनारसीदासकी गद्यशैली सजीव और प्रभावपूर्ण है। शब्द सार्थक, प्रचलित और भावानुकूल प्रभाव उत्पन्न करनेकी क्षमता रखते है । यद्यपि विपयके अनुसार पारिभाषिक शब्दोका प्रयोग किया गया है, पर इससे लिष्टता नही आयी है । वाक्योका गठन स्वाभाविक है, दूरान्वय या उलझे हुए वाक्य नही है । लेखकने अनुच्छेदयोजना - एक ही प्रसगसे सम्बद्ध एक विचारधाराको स्पष्ट करनेवाले वाक्योंका सगठन, बहुत ही सुन्दरकी है । भावोको शृंखलाकी कडियोकी तरह आबद्ध कर रखा है । ब्रजभाषाका इतना परिष्कृत रूप अन्यत्र शायद ही मिल सकेगा । नमूना निम्न है · "एक जीव द्रव्य जा भौतिकी अवस्था लिये नानारूप परिन मैं सो भाँति अन्य नीवसों मिले नाहीं । बाकी और भाँति । याही भाँति
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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