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________________ परिशिष्ट २३० पण्डित सदासुखदास-विक्रमकी वीसवीं शतीके विद्वानोमे पण्डित सदासुखदासका नाम प्रसिद्ध है। यह जयपुरके निवासी थे। इनके पिताका नाम दुलीचन्द और गोत्रका नाम कागलीवाल था । यह डेडराज वशम उत्पन्न हुए थे। अर्थप्रकाशिकाकी वचनिकामे अपना परिचय देते हुए लिखा है डेढराज के वंश माँहि इक किंचित् ज्ञाता । दुलीचंदका पुत्र काशलीवाल विख्याता ॥ नाम सदासुख कहें भाल्मसुखका बहु इच्छुक । सो जिनवाणी प्रसाद विपयत भये निरिच्छुक ॥ पण्डित सदासुखदासजी बड़े ही अध्ययनशील थे। आप सदाचारी, आत्मनिर्भय, अध्यात्मरसिक और धार्मिक लगनके व्यक्ति थे। सन्तोप आपम• कूट-कूटकर भरा था। आजीविकाके लिए थोड़ा-सा कार्य कर लेनेके उपरान्त आप अव्ययन और चिन्तनम रत रहते थे। पण्डितजीके गुरु पं० मन्नालालजी और प्रगुरु पण्डित जयचन्दजी छावड़ा थे। आपका जान भी अनुभवके साथ-साथ वृद्धिंगत होता गया । यद्यपि आप बीसपन्थी आम्नायके अनुयायी थे, पर तेरहपन्थी गुरुओके प्रभावके कारण आप तेरहपन्थको भी पुष्ट करते थे। वस्तुतः आप समभावी थे, किसी पन्थविशेपका मोह आपमें नहीं था। आपके शिष्योमे पण्डित पन्नालाल सघी, नाथूराम दोशी और पण्डित पारसदास निगोत्या प्रधान हैं। पारसदासने 'शनसूर्योदय नाटक' की टीकामे आपका परिचय देते हुए आपके त्वभाव और गुणोंपर अच्छा प्रकाश डाला है । यहाँ कुछ पक्तियाँ उद्धृत की जाती है। लौकिक प्रवीना तेरापंथ माहि लीना, मिथ्यावृद्धि करि छीना जिन आतमगुण चीना है। पर्दै नौ पढावे मिथ्या अलरफू कसैं, ज्ञानदान देय जिन मारग बढाएँ हैं।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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