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________________ परिशिष्ट आरम्भम कविने जयपुरके राजवशका इतिहास लिखा है। सवत् १९९१ में मुसलमानोने जयपुरमे राज्य किया है। इसके पूर्वके कई हिन्दू राजवंशेकी नामावली दी है। इस ग्रन्थका वयं विषय विविध धार्मिक विषय, सघ, दिगम्बर पञ्चावली, भट्टारकों तथा खण्डेलवाल जातिकी उत्पचि आदि है। इस ग्रन्थकी समाप्ति कविवरने मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी सवत् १८२७ मे की है। कविताका नमूना निम्न है-कवि राजमहलका वर्णन करता हुआ कहता है - अंगन फरि केल परवात, मनु रचे विरंचि जु करि समान । है आव सलिल सा तिह बनाय, तह प्रगट परस प्रतिबिंव माय ॥ कबहूँ मणि मन्दिर माँझि जाय, तिय दूजी लखि प्यारी रिसाय । तव मानवती लखि प्रिय हसाय, कर नोरि जोर लेहै वनाय । चिदानन्द-यह निस्पृहयोगी और आध्यात्मिक सन्त थे। स्वरशास्त्रके अच्छे जाता थे। स्वरोदय नामक एक रचना इनकी स्वरज्ञान पर उपलब्ध है । यह संवत् १९०५ तक जीवित रहे थे। इनकी कविता सरस और अनुभव पूर्ण है । इनकी कविताका नमूना निम्न है। चौ लौ तत्त्व न सूझ पड़े रे तौ लौ मूढ भरमवश मूल्यौ, मत ममता गहि जगलौं लडेरे ॥ आकर रोग शुभ कंप अशुभ लख, भवसागर इण भांति मडै रे। धान काज जिम मूरख खितहड़, उखर भूमि को खेत खरे॥ उचित रीत भो लख बिन चेतन, निश दिन खोटो घाट घहै रे। मस्तक मुकुट उचित मणि अनुपम, पग भूषण पज्ञान नहेरे॥ कुमतावश मन वक्र तुरग जिम, गहि विकल्प मग माहि अड़े रे। 'चिदानन्द' निजरूप मगन भया, तव कुतर्क तोहि नाहिं गरे रंगविजय यह कवि तपागच्छके थे | इनके गुरुका नाम अमृतविजय था । आप आव्यात्मिक और स्तुतिपरक पद्यरचनामें प्रवीण हैं।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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