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________________ परिशिष्ट २३३ उत्तरार्ध है । इनका अध्यात्मज्ञान एवं कवित्वशक्ति उच्चकोटिकी थी । यद्यपि इनकी भाषा हॅूढ़ारी है पर टोडरमल, नयचन्द्र आदि विद्वानोकी भाषाकी अपेक्षा सरस और सरल है । अनेक स्थलोंपर भाषाकी तोड़मरोड़ भी पायी जाती है। चिद्विलास, आत्मावलोकन, गुणस्थानभेद, अनुभवप्रकाश, भावदीपिका एवं परमात्मपुराण आदि गद्यमें तथा अध्यात्मपच्चीसी, द्वादशानुप्रेक्षा, ज्ञानदर्पण, स्वरूपानन्द, उपदेशसिद्धान्त आदि पद्यमे हैं । परमात्मपुराण मौलिक है, इसमें ग्रन्थकारकी कल्पना और प्रतिभाका सर्वत्र प्रयोग दिखलाई पड़ता है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजीने इनके आत्मावलोकनका उद्धरण अपनी रहस्यपूर्ण चिट्टी मे दिया है। "ज्ञान अनन्तशक्ति स्वसंवेदरूप धरे लोकालोकका जाननहार अनन्त गुणकौं जानें। सतपर जाय सत्वीर्य, सत् प्रमेय, सत् अनन्तगुणके अनन्त सद् जामै अनन्त महिमा निधि ज्ञानरूप ज्ञानपरणति ज्ञाननारी ज्ञानसो मिलि परणति ज्ञानका अंग-अंग मिलते हैं ज्ञानका रसास्वाद परणति ज्ञानको ले ज्ञान परणतिका विलास करे । जाननरूप उपयोग चेतना ज्ञानकी परणति प्रकट करै । जो परणति नारीका विलास न होता तो ज्ञान अपने जानन लक्षणकौ यथारथ न राखि सकता" । -परमात्मपुराण कविताका उदाहरण - करम कलोलन की उठत झकोर भारी, या अविकारीको न करत उपाध है । कहुँ क्रोध करे कहुँ महा अभिमान करें, कहुँ माया पनि लग्यो लोभ दरयाव है | कहुँ कामवशि चाहि करें अति कामनीकी, कहुँ मोह धारणा तैं होत मिथ्याभाव है।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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