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________________ वर्तमान काव्यधारा और उनकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ विलोचनों में विष दुग्ध वाण की, कटाक्ष में मृत्युमयी कृपाण की ॥ सरोज द्रोही रस शून्य देह है, सुगन्धसे हीन शशांक ख्यात है । न साम्य पाती त्रिशलामुखेन्दु का, मलीमसा प्राकृत चन्द्रकी कला ॥ इस काव्यमे रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, व्याजोक्ति, श्लेप, अनुप्रास, भ्रतिमान आदि अलंकारोंकी अद्भुत छटा प्रदर्शित की है। निम्न पद्य दर्शनीय है सरोज सा वक्त्र सुनेत्र मीन से, सीवार से केस सुकंठ कम्बु-सा । उरोज ज्यो कोक सुनाभि भौर सी, तरंगिता थी त्रिशला-तरंगिणी ॥ अन्य काव्यों का प्रतिविम्व -स० १प० ८१ वर्तमान कान्य सिद्धार्थसे अत्यधिक अनुप्राणित है । महाराज सिद्धार्थ तथा शुद्धोदनको रूप गुणोकी साम्यता बहुत अशोमे एक है । सिद्धार्थमे यशोधराके रूप, सौन्दर्य, उरोज, मुख आदिका जैसा वर्णन किया है वैसा ही वर्द्धमानमें त्रिशलाके मुख, नेत्र, उरोज आदिका भी । गौतम बुद्धकी कामघोषणाकी प्रतिच्छाया महाराज सिद्धार्थकी कामघोषणा है । उदाहरणार्थ देखिये - २३ सुकामिनी जो अब मानिनी रही, मनोजकी है अपराधिनी वही । चतुर्दिशा दामिनि व्याज व्योममें, समा गयी काम नृपाल घोषणा ॥ - वर्द्ध० स० २५० १७
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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