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________________ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन प्रभावित होता है । जिस प्रकार वसन्त ऋतुमं प्रकृति राशि राशि अपना सौन्दर्य बिखेर देती है उसी प्रकार ज्ञान वैभवके प्राप्त होते ही आत्माका अपार सौन्दर्य उद्बुद्ध हो जाता है और वह शर्मीली छुई-मुईसी दुलहिन सामने खड़ी हो जाती है। साधक इसे प्राप्त कर निहाल हो जाता है । कवि इसी भावनाको दिखलाता हुआ कहता है १८८ तुम ज्ञान विभव फूली वसन्त, यह मन मधुकर सुखसी रमन्त । दिन वडे भये राग भाव, मिध्यातम रजनीको घटाव ॥ तुम ज्ञान विभव फूलों वसन्त, यह मन मधुकर सुखसी रमन्त । वह फूली फैली सुरुचि वेल, ज्ञाता जन समता संग केलि ॥ तुम ज्ञान विभव फूली वसन्त, यह मन मधुकर सुखसों रमन्त । द्यानत वाणी दिक मधुर रूप, सुर नर पशु आनन्द वन स्वरूप || तुम ज्ञान विभव फूली वसन्त, यह मन मधुकर सुखसी रमन्त । कवि हेमविजयने प्रकृतिको सष्टि और सजीव रूप में चित्रित किया है। कथा प्रवाहकी पूर्व पीटिका के स्पमं प्रकृति भावोद्दीपनमें कितनी सहायक है यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है । पाठक देखेंगे कि इस उदाहरण में कथा प्रसंगको मार्मिक बनानेके लिए अलकार - विधान और उद्दीपन विभावके रूपमें कितना सुन्दर प्रकृतिका चित्रण किया है 3 घनघोर घटा उनयी जुनई, इत उत चमकी विजली । पियुरे-पिथुरे पपीहा बिललाती, जुमोर किंगार किरीत मिली | वीच विन्दु परे हग आँसु फरे, पुनि धार अपार इसी निकली। मुनि हेम के साहिब देखन फूँ, उग्रसेन दली सु अकेली चली ॥ कहि राजिमती सुमती सखियान कॅ, एक खिनेक खरी रहु रे । सखिरी सगरी अँगुरी मुही वाहि कराति इसे निहुरे ॥ अवही तबही कवही जवही, यदुराय जाय इसी कहुरं । मुनि हेमके साहिब नेम जी ही अब तुरन्ते तुम्हम् बहुरे ॥
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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