SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन की अभिव्यंजनापर निर्भर है। अलंकार इस दिशामे परम-सहायक होते हैं। मनोभावोंको हृदय-स्पी बनानेके लिए अलकारोंकी योजना करना प्रत्येक कविके लिए आवश्यक है। जैन-कवियों ने प्रस्तुतके प्रति अनुभूति उत्पन्न करानेके लिए जिस अप्रस्तुत की योजनाकी है, वह स्वाभाविक एव मर्मस्पर्शी है, साथ ही प्रस्तुतकी भॉति मावोद्रेक करनेमें सक्षम भी । कवि अपनी कल्पनाके वलमे प्रस्तुत प्रसंगके मेलमे अनुरंजक अप्रस्तुतकी योजना कर आत्माभिव्यंजनमें सफल हुए है । वस्तुतः जैन कवियोंने चर्म-चक्षुओंसे देखे गये पदार्थों का अनुभव कर कल्पना द्वारा एक ऐसा नया रूप दिया है, जिससे बाह्य-जगत् और अन्तर्जगत्का सुन्दर समन्वय हुआ है। इन्होंने बाह्य जगत्के पदार्थीको अपने अन्त:करणमें ले जाकर उन्हें अपने मात्रोंसे अनुरंजित किया है और विधायक कल्पना-द्वारा प्रतिपाद्य विषयकी सुन्दर अभिव्यंजना की है। आत्माभिव्यंजनमे नो कवि जितना सफल होता है, वह उतना ही उत्कृष्ट माना जाता है और यह आत्माभिव्यंजन तबतक सम्भव नहीं जबतक प्रस्तुत वस्तुके लिए उसीके मेलकी दूसरी अप्रस्तुत वस्तु की योजना न की नाय । मनीपियोंने इस योजनाको ही अलंकार कहा है । काव्यानन्दका उपभोग तभी सम्भव है, जब काव्यका कलेवर क्लामय होनेके साथ अनुभूतिकी विभूतिसे सम्पन्न हो । जो कवि अनुभूतिको जितना ही सुन्दर बनानेका प्रयास करता है उसकी कविता उतनी ही निखरती जाती है । यह तभी सम्भव है जब उपमान सुन्दर हो । अतएव अलकार अनुभूतिको सरस और सुन्दर बनाते हैं । कविताम भाव-प्रवणता तभी आ सकती है, जब रूप-योजनाके लिए अलंकृत और सँवारे हुए पदोका प्रयोग किया जाय । दूसरे शब्दोंमे इसीको अलकार कहते हैं। शब्दालंकारोंमें शब्दोंको चमत्कृत करनेके साथ मावोंको तीव्रताप्रदान करनेके लिए अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति आदिका प्रयोग सभी जैन काव्योंमें मिलता है। "सकल करम खल दुलन, कमठ सठ पवन
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy