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________________ छन्दःविधान १५७ आधुचि द्वारा अनेक छन्दोंमें अपूर्व मिठास विद्यमान है । कर्णकटु, कर्कश और अर्थहीन शब्दोका प्रयोग बिल्कुल नहीं किया है । छन्दोंकी ल्य और वालका पूरा ध्यान रखा है। पुरातन छन्दोंके अतिरिक्त जैनकवियोने कतिपय नवीन छन्दोका भी उपयोग किया है, वाला छन्दकै अनेक भेद-प्रमेदोका प्रयोग जैनकवियों के काव्योंमे विद्यमान है। कवि भूधरदासने अपने पार्श्वपुराणमें चार चरणवाले इस छन्दमें पहला, दूसरा और तीसरा चरण इन्द्रवज्राका और चौथा चरण उपेन्द्रवज्राका रखा है। पद्यमे माधुर्य लानेके लिए प्रत्येक चरणके मध्य भागमें हल्का-सा विराम रखा है, जिससे स्वराघात होनेके कारण मधुरिमा द्विगुणित हो गयी है। मात्राछन्दकी उद्भावना तो बिल्कुल नवीन है। कवि भूधरदासने बताया है कि इसके प्रथम और तृतीय चरणमें ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ, अन्तमें लघु और लघुका पूर्ववर्ती अर्थात् उपान्त्य वर्ण गुरु होता है । दूसरे और चौथे चरणमे बाहर-बाहर मात्राएँ और अन्तके दो वर्ण गुरु होते हैं । इस छन्दके अनेक भेद-प्रभेदोंका प्रयोग भी कविने सुन्दर रूपमे किया है । यद्यपि यह मात्रिक छन्द है,पर माधुर्यके लिए इसमे हस्वघाँका प्रयोग ही अच्छा माना जाता है। ___ कवि बनारसीदासने अपने नाटक समयसारमें सवैया छन्दकै विभिन्न भेद-प्रभेदोका प्रयोग किया है । यति और गणके नियमोंने छन्दोमे लयकी तरंगोंका तारतम्य रखा है। लम्बे पद या चरण नही रखे हैं, जिससे श्वास क्रियाकी सुगमतामें किसी प्रकारकी रुकावट हो और पदका क्रम अनायास ही भग हो जाय । यहाँ एक-दो उदाहरण कलाकारको सूक्ष्म कारीगरीको प्रदर्शित करनेके लिए दिये जाते है | पाठक देखेंगे कि वनिविश्लेषणके नियमानुसार लय-तरंगका समावेश कितने अद्भुत ढंगसे किया है । गुरु-लघुके तारतम्यने राग और तालको अद्भुत संतुल्न प्रदान कर रस वर्षा करनेमे कुछ उठा नही रखा है।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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