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________________ हिन्दी जैन- साहित्य- परिशीलन जैनकवियोकी वर्ण- साधना भी अद्वितीय है । च त न र ल व आदि कोमल वर्णोंकी आवृत्तिने काव्यमें सगीत - सौन्दर्य उत्पन्न करनेमे बडी सहायता प्रदान की है। इन वर्णोंके उच्चारणसे श्रुति मधुरता उत्पन्न होती है। री, रे आदि सम्बोधनोकी आवृत्तिने तो भाषाका रूप और भी निखार दिया है | शब्दचित्र पाठकोके समक्ष एक साकार मूर्ति प्रस्तुत करते हैं। निम्न पद्यमें 'च' की आवृत्ति दर्शनीय है १५२ चितवत वदन अमल चन्द्रोपम तज चिन्ता चित होय अकामी । त्रिभुवनचंद पाप तप चन्दन, नमत चरन चन्द्रादिक नामी ॥ तिहुँ जग छई चन्द्रिका कीरति चिह्न चन्द्र चिंतत शिवगामी । चन्दौ चतुर-चकोर चन्द्रमा चन्द्रवरन चन्द्रप्रभ स्वामी ॥ शब्दसाधना और शब्द योजना भी जैन कवियोकी अनूठी हुई है । सहानुभूति, अनुराग, विराग, ईर्ष्या, घृणा आदि भावनाओको तीव्र या तीव्रतर बनानेमे शब्द चयन और शब्दयोजनाका महत्त्वपूर्ण स्थान है । प्रत्येक शब्दमे इस प्रकारकी लहरे विद्यमान हैं, जिनसे पाठकका हृदय स्पन्दित हुए बिना नहीं रह सकता । अतः पाठक देखेंगे कि कवि भगवतीदासने भाव और विषयके अनुकूल भापाके पर-परिवर्तनमें कितनी कुशलता प्रदर्शित की है अचेतनकी देहरी, न कीजे यासों नेह री, ये औगुनकी मेहरी मरम दुख भरी है ।' ग्राहीके सनेहरी न आवै कर्म छेहरी, सुपावे दुःख तेहरी जे याकी प्रीति करी है । अनादि लगी जेहरी जु देखत ही खेहरी, तू यामें कहा लेहरी कुरोगनकी दरी है। 1 कामगज केहरी, सुराग द्वेष केहरी, तू यामें हग देहरी जो मिष्या मति दरी है ।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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