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________________ १०६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन संज्ञा दी गयी है, में दास्यभाव वर्तमान मिलेगा, परन्तु प्रधानतः साधक अपनेको शुद्ध करनेके लिए इस प्रकार शुद्धात्माओंका आश्रय लेता है, जिस प्रकार दीपकको प्रज्वलित करनेके लिए अन्य दीपकाकी लौका सहारा लेना पड़ता है। बैंका अवलम्बन देनेवाला दीपक अपने भीतरसे किसी वस्तुको प्रदान नहीं करता है, पर अपने तेन-द्वारा अन्यको प्रकाशित या प्रज्वलित करनेमें सहायक होता है । जैन पद-रचयिताओंने भी इसी भक्तिभावनाकी अभिव्यजना की है। अवतारवाद इन्होने नहीं माना है और न निर्गुण या सगुण सिद्धान्तकै विवादमें पडनेका प्रयास किया है। जैन नमें अनेकान्तवाटकी विवेचना-परस्पर आपेक्षिक अनेक धर्मात्मक वस्तुकी विवेचना की गयी है, जिसने आराध्य बीतसगी प्रभु एककी अपेक्षा सुनिश्चित दृष्टिकोणसे सगुण और अन्य आपेक्षिक धर्मकी अपेक्षा निर्गुण है। यद्यपि आराध्यको शील, ज्ञान, शक्तिका भाण्डार माना है, जिससे कोई भी साधक अपनी मनोरम, गुसशक्तियोका उद्घाटन करनेमे प्रगतिशील बनता है। लोकरजन और लोकरक्षण करना भगवान्का कार्य नहीं है, किन्तु उनके पूत गुणोकी स्मृति करनेसे लोकरजनके कार्य सहजमें सम्पन्न हो जाते हैं । इसी कारण जैन-पद-रचयिताओको ससारका विलेपण करते समय माया, मिथ्यात्व, शरीर, विकार आदिका विवेचन भी करना पड़ा. है। संसार और प्रलोभनोंसे वचनेके लिए जैन-पद-रचयिताओने मानव प्रवृत्तियोंका सुन्दर विश्लेषण किया है। इनके मूल्लोत एवं प्रेरणा दोनोका स्थान हृदय है । जैन सन्तोका भगवत्प्रेम शुष्क सिद्धान्त नहीं, अपितु. स्थायी प्रवृत्ति है । यह आत्माकी अशुभ प्रवृत्तिका निरोध कर शुभ प्रवृत्तिका उदय करता है, जिससे दया, क्षमा, शान्ति आदि श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न होते हैं। जैन पदोका वर्ण्य विषय भक्ति और प्रार्थनाके अतिरिक्त मन, शरीर, इन्द्रिय आदिकी प्रवृत्तियोंका अत्यन्त सूक्ष्मता और मार्मिक्रवाके साथ
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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