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________________ हिन्दी - जैन-गीतिकाव्य ९३ मोहि ताजी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजग त्रिकाल में ॥ मोहि० ॥ मैं उदधि परयो दुख भोग्यौ, सो दुख जात कह्यौ ना । नामन मरण अनंत तनो तुम जानन माहिं छिप्यौ ना ॥ मोहि० ॥ भर्त्सना विषयक पदोमे कविने विषय-वासनाकै कारण मलिन हुए मनको फटकारा है तथा कवि अपने विकार और कषायोका कच्चा चिट्ठा प्रकट कर अपनी आत्माका परिष्कार करना चाहता है । नाना प्रकारकी विषयेच्छाऍ तृष्णा और सुनहली आशा कल्पनाएँ इस प्राणीको और भी कष्ट देती हैं; अतएव विषयोको निस्सार समझ त्यागना चाहिये । यह शरीर अत्यन्त घृणित है, माता-पिता के रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ है । इसमे अनेक अशुचि पदार्थ विद्यमान हैं, अतएव इससे ममता छोड देनी चाहिये मत कीनो री यारी, छिन गेह देह जब जानके ॥ टेक ॥ उपजी मल-फुलवारी लाल-लाल-जल क्यारी ॥ मत० ॥ मात-पिता-रज-वीरज सो यह, अस्थि- माल-पल नसाजाल की, कर्म-कुरंग-थली पुतली यह मूत्र पुरीष मँडारी । धर्म-मडी रिपु-कर्म-कडी धन-धर्म चुरावन हारी ॥ मत० ॥ X X X हो तुम शठ अविचारी जियरा जिनवृप पाय वृथा खोवत हो ॥ टेक ॥ पी अनादि मदमोह स्वगुननिधि भूल अचेत नौंट सोबत हो ॥ हो तुम० ॥ भय दर्शन- सम्वन्धी पदोमे मनको भय दिखलाकर आत्मोन्मुख किया गया है । कविने अपने अन्तस्मै ससारकी झझटो, बाधाओं और विका अनुभव कर वास्तविक परिस्थितियोका साक्षात्कार किया है । जान पडता है जैसे संसारके मायावी बन्धनोसे वह भयभीत है । अतः ससारकै मायानालसे उन्मुक्त होनेके लिए अत्यन्त उत्सुक है, उसकी आत्मामं सासारिक
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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