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________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन जो छिन जाय सरे आयूमें, निश दिन टूक काल । बाँधि सके तो है भला, पानी पहिली पाल जगमे ॥३॥ मनुप देह दुलंग्य है, मति चूकै यह दाव । 'भूधर' राजुल कंत ही, शरण सितायी आव नगमें०॥४॥ अध्यात्म प्रेमी कवि बनारसीदासने आत्मानुभूतिके कवि वनारसी. निरसे प्रवेशकर कान्यकी सुरीली तान भरी है। दासके पद इनके सरस और हृदयग्राही पद आत्मकल्याणमे बडे ही सहायक है। मानव अनुभूति, वासना और विचारोंसे जीवित है। जीवनकी विस्तृत भूमिकाके रूपमे अनुभूतिका आलोक है और अनुभूतियोमें श्रेष्ठ है आत्मानुभूति । इसमे सारा ध्यान खिंचकर एक विन्दुपर आ टिकता है, जहाँ दुःख नहीं, छिपाव नहीं, सकोच नहीं । व्यक्ति वाहसे विमुख हो अन्तस्की ओर जबतक नहीं मुडता है, मन इधर-उधर भटकता रहता है। मन एक बार जब आत्मोन्मुख हो जाता है तो फिर भागनेका उसे अवकाश नही रहता | कविवरने मनको इसी सन्तोपकी ओर ले जानेका सकेत किया है । मनके तुष्ट हो जानेपर अन्तस्तलका रस उमड पडता है, मनुष्य अपनी सुधबुध खो आल्माका साक्षात्कार करता है। आस्था और विश्वाससे परिपूर्ण सनकी अविचलित अवस्था कर्म-प्रन्थिक मोचनमें बड़ी सहायक होती है। तृष्णा इतनी प्रबल और उद्दाम है कि मनुष्यका इस ओर मुकाव होते ही वह इसकी प्रबल लपेटोंसे आक्रान्त हो जाता है और अपना सर्वस्व खो बैठता है । इसके विपरीत जीवनमे वही व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है जो आशाके वशवर्ती न होकर सन्तोपके मार्गका पथिक है। लोभका वीन परिग्रह है, क्योकि परिग्रहके बढ़नेसे मोह बढता है और मोहके बढ़नेसे तृष्णा बढ़ती है, तृष्णासे असन्तोप और असन्तोपसे दुःख होता है। कविने निम्नपदमे इसी भावनाको वडे अनूठे ढंगसे प्रदर्शित किया है
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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