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________________ २५० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन करते थे, पर जब अफसर ही विरोधी बन जाय, तब कितने दिनोंतक कोई बच सकता है। आखिरकार एक जाल बनाकर साहबने इन्हे तीन वर्पकी जेलकी सजा दे दी। इन्हें शान्तिपूर्वक उस अग्रेनके अत्याचारोको सहना पड़ा। कुछ दिनके उपरान्त एक दिन प्रातःकाल ही कलक्टर साहब जेलका निरीक्षण करने गये। वहाँ उन्होने कविको जेलकी एक कोठरीमे पद्मासन लगाये निम्न स्तुति पढते हुए देखा। 'हे दीनबन्धु श्रीपति करुणानिधानजी। अब मेरी व्यथा क्यों न हरो बार क्या लगी।' इस स्तुतिको बनाते जाते थे और भैरवीमे गाते जाते थे। कविता करनेकी इनमे अपूर्व शक्ति थी, जिनेन्द्रदेवके ध्यानमें मग्न होकर धारा प्रवाह कविता कर सकते थे। अतएव सदा इनके साथ दो लेखक रहते थे, बो इनकी कविताएँ लिपिवद्ध किया करते थे। परन्तु जेलकी कोठरीमे अकेले ही ध्यान मग्न होकर भगवान्का चिन्तन करते हुए गानेमें लीन थे। इनकी ऑखोसे ऑसुओकी धारा प्रवाहित हो रही थी। साहब बहुत देरतक इनकी इस दशाको देखता रहा । उसने "खजाची बाबू । खजाची बाबू" कहकर कई बार पुकारा; पर कविका ध्यान नहीं टूटा। निदान कलक्टर साहब अपने आफिसको लौट गये। थोड़ी देरमे एक सिपाहीके द्वारा इनको बुलवाया और पूछा "तुम क्या गाटा और रोटा था।" वृन्दावनने उत्तर दिया-'अपने भगवान्से तुम्हारे अत्याचारकी प्रार्थना करता था। साहबके अनुरोधसे वृन्दावनने पुनः "हे दीनबन्धु श्रीपति" विनती उन्हें सुनायी और इसका अर्थ भी समझाया। साहब बहुत प्रसन्न हुआ और इस घटनाके तीन दिनके बाद ही कारागृहसे इन्हें मुक्त कर दिया गया। तभीसे उक्त विनती सकटमोचनस्तोत्रके नामसे प्रसिद्ध हो गयी है । इनके कारागृहकी घटनाका समर्थन इनकी कवितासे भी होता है। "श्रीपति मोहि जान जन अपनो, हरो विधन दुख दारिद जेल कहा जाता है कि राजघाटपर फुटही कोठीमें एक गार्डन साहब सौदागर रहते थे। उनकी एक बड़ी भारी दुकान थी। आपने कुछ दिन तक इस दुकानकी मैनेजरीका भी कार्य किया था । यह अनवरत कविता रचनेमे लीन रहते थे। जब यह जिनमन्दिर में दर्शन करने जाते तो प्रति
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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