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________________ रीति-साहित्य २३९ ही किया जा सकता है। अतएव कविताको एक सुनिश्चित मार्गपर ले चल्नेके लिए जैन-साहित्यकारोने छन्द-व्यवस्था निरूपित की है। १९ वी शतीके उत्तरार्धमे कविवर वृन्दावनदासने १०० प्रकारके छन्दोके बनानेकी विधि तथा छन्दशास्रकी आरम्भिक बाते बड़े सुन्दर और सरल ढगसे लिखी है। इतना सरल और सुपाच्य पिगल-विषयका अन्य अन्य अवतक हमें नहीं प्राप्त हो सका है। आरम्भमे ही लघु-गुरुके पहचाननेकी प्रक्रिया बतलाता हुआ कवि कहता है लघुकी रेखा सरल (1) है, गुरुकी रेखा पंक (6)। इहि क्रम सौ गुरु-लघु परखि, पढियो छन्द निशंक ॥ कहुँ कहुँ सुकवि प्रबन्ध मह, लघुको गुरु कहि देत । गुरुहूको लघु कहत है, समुशत सुकवि सुचेत । आठों गणों के नाम, स्वामी और फलका निरूपण एक ही सवैयेमें करते हुए बताया है मगन तिगुरु भूलच्छि लहावत, नगन तिलघु सुर शुभ फल देत। मगन मादि गुरु इन्दु सुजस, लघु आदि मगन जल वृद्धि करत॥ रगन मध्य लघु, भगिन मृत्यु, गुरुमध्य जगन रवि रोग निकेत। सगन अन्त गुरु, वायु भ्रमन वगनत लघू नव शून्य समेत ॥ छन्दोंमें मात्रिक और वार्णिक छन्दोंका विचार अनेक भेद-प्रभेदी सहित विस्तारसे किया गया है। लक्षणोके साथ उदाहरण भी कविने अत्यन्त मनोज दिये है। अचलधृत छन्दमे १६ वर्ण माने है, इसमे ५ भगण और १ लघु होता है । कवि कहता है करम भरम वश भमत जगत नित, सुर-नर-पशु तन धरत अमित तित । १. सम्पादक जमनालाल जैन साहित्यरत्न और प्रकाशक मान्यखेट जैन संस्थान, मलखेड (निजाम)
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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