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________________ जैन पुरातन काव्य-साहित्य २९ है ही, इसके बिना कोई काव्य प्रबन्ध कोटिमे नही आ सकता है। देशी मापा और पुरानी हिन्दीमें जैन-प्रबन्ध-काव्योंकी भरमार है। ब्रजभाषा और राजस्थानी, टूढारी भाषामें भी कतिपय सुन्दर जैन प्रवन्ध काव्य हैं। ___अपभ्रंश भाषामे 'पउमचरिउ-रामायण, हरिवंशचरित-कृष्णचरित, रिटनेमिचरिउ, भविस्यत्तकहा, तिसहिमहापुरिसगुणालकार और है वैरसामिचरिउ प्रमुख है। प्रवन्ध कान्यकी सफलता ___ कथाकी पूर्वापरक्रमवद्धताके साथ उसके मर्मस्थलोंकी पहिचानपर निर्भर है। जो कथाकै मर्मस्थलोकी प्रबन्ध-काव्य - परख रखता है, उसे प्रबन्ध-काव्यके सृजनमें पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। देशी भाषाके जैन कवियोंने कुटुम्बियोके विछोह होनेपर इष्ट जनोका विलाप, युद्धमे योद्धाओकी उमगे, रणयात्राका सजीव चित्रण, विरहके गीत आदि मर्मस्पर्शी स्थलोकी परखसे मानवकी सहृदयता और सहानुभूति बढानेमें वेजोड सफलता प्राप्त की है। 'पउमचरिड' में वर्णित रावणकी वीरगति हो जानेपर मन्दोदरीके करुणापूर्ण विलापको सुनकर निठुरता भी रुदन किये विना नही रह सकती । कविकी अनुभूति कितनी गहराईतक पहुंची है, वर्णनमे कितनी सजीवता है, यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है। आएहिं सी आरियहि, अट्ठारह हिव जुवइ सहासेहिं । णव पण माला डंबरेहि, छाइउ विज्नु जेम चउपासेहिं । रोवह लंकापुर परमेसरि। हा रावण ! विहुयण जण केसरि ॥ पड विणु समर दूरु कहाँ वज्जइ । पड विणु वालकील कहाँ छनइ ॥ पड विणु णव गह एकीकरण। को परिसइ कंठा हरण ।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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