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________________ २१६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन ऐसा पुरुष लजाल बड़ा । वाव न कहै जात है गड़ा । कहै माइ जिन होहि उदास । कैसे मुद्रा मेरे पास ॥ गुपत देहु तेरे कर माहिं । जो वै यहुरि आगरे जाहि ॥ पुत्री कहै धन्य तू माइ । मैं उनकौं निसि वूझौं नाइ । रातको जव पुनः दम्पति मिले तो उस सती-साध्वीने अपनी मॉसे प्राप्त २०० रुपये भी उन्हें दे दिये और आगरे जाकर व्यापार करनेका अनुरोध किया । कविने दूसरे दिनसे ही व्यापारकी तैयारी कर दी तथा माल खरीदने लगा। इसी बीच अवकाश पर्याप्त मिला, अतः कविने नाममाला और अजितनाथ स्तुतिकी रचना यही की। दुर्भाग्यने कविका साथ सदा दिया, अतः इस व्यापारम भी कविको घाटा ही रहा । इसके पश्चात् कवि अपने मित्र नरोत्तमदासके यहाँ रहने लगा। कुछ दिनके पश्चात् नरोत्तम, उसके श्वसुर और बनारसीदास तीनों पटनेकी ओर चले । रातमे रास्ता भूल जानेसे एक चोरोंके ग्राममें पहुंचे। जब चोरोंके चौधरीने इन्हें देखा तो नाम-ग्राम पूछा । इस अवसरपर बनारसीदासकी बुद्धि काम कर गई और एक श्लोकमे चौधरीको आशीवाद दिया । लोकयुक्त आशीर्वाद सुनकर चौधरी कुछ मुग्ध हुआ और इन्हें ब्राह्मण समय दण्डवत् किया तथा हाथ जोड़कर बोला-"महाराज, आप लोग रास्ता भूलकर यहाँ आ गये है। रातभर यही रहें, सबेरे आपको रास्ता बतला दिया जायगा । जव चौधरी इनको वहाँ छोड़ शयन करने चला गया तो तीनोंने सूत बटकर यज्ञोपवीत धारण किया तथा मिट्टी घिसकर त्रिपुण्ड लगाया माटी लीन्हीं भूमिसों, पानी लीन्हों वाल । विप्र वेप तीनों धयों, रीका कीन्हों भाल ॥ इस प्रकार कविने वनारस, जौनपुर, आगरा आदि स्थानोंमे र
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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