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________________ आत्मकथा-कान्य ३०२ जैसी सुनी पिलोकी नैन । तैसी कछु कहौं मुख बैन । कहीं अतीत-दोप-गुणवाद । बरतमानताई मरजाद ॥ भाषी दसा होइगी जथा । ग्यानी जाने तिसकी कथा ॥ तातै भई बात मन आनि । थूलरूप कछु कही बखानि ॥ मध्य देसकी बोली बोलि । गर्भित बात कही हि खोलि ॥ भाखौ पूरव-दसा-चरित्र । सुनइ कान धरि मेरे मित्र ॥ समूची आत्मकथा इतनी रोचक है और ऐतिहासिक निबन्धनकी दृष्टिसे इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इसका कुछ विस्तारसे वर्णन करनेका लोम सवरण नही किया जा सकता | कवि बनारसीदास एक धनी-मानी सम्भ्रान्त वशमे उत्पन्न हुए थे। इनके प्रपितामह जिनदासका साका चलता था, पितामह मूल्दास हिन्दी और फारसीके पडित थे; और ये नरवर (मालवा) मे वहाँके मुसल्मान नवावके मोदी होकर गये थे। इनके मातामह मदनसिंह चिनालिया जौनपुरके नामी जौहरी थे और पिता खड्गसेन कुछ दिनोतक बगालके सुल्तान मोदीखॉके पोतदार थे और कुछ दिनोके उपरान्त जौनपुरमे जवाहरातका व्यापार करने लगे थे। इस प्रकार कविका वश सम्पन्न था तथा अन्य सम्बन्धी भी धनिक थे। पर आत्मकथा-लेखकको सुख-शान्ति जीवनमे नही मिली | अतः धनार्जनके लिए जीवन भर इन्हें दौड-धूप करनी पड़ी और तरह-तरहके कष्ट सहने पडे । इस दौडधूप और कष्टोंका निरूपण कविने अत्यन्त विशुद्ध हृदय से किया है। कविने यद्यपि सामान्यशिक्षा प्राप्त की थी, पर कविता करनेकी प्रतिभा जन्मनात थी। १४ वर्षकी अवस्थामे प० देवदत्तके पास पढना आरम्भ किया था और धनञ्जयनाममालादि कई ग्रन्थोको पढ़ा था पढ़ी नाममाला शत दोय । और अनेकारथ अवलोय । ज्योतिष अलंकार लघु कोक । खंडस्फुट शत चार श्लोक ॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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