SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकीर्णक काव्य १९९ इस सरस नीतिपूर्ण रचनामे देवानुरागशतक, सुभापितनीति, उपदेशाधिकार और विराग-भावना ये चार प्रकरण है । प्रथम देवानुराग • शतकमे कवि वुधज्नने दास्य भावकी भक्ति अपने बुधजन-सतसई माय ०३ आराध्यके प्रति प्रकट की है । यद्यपि वीतरागी प्रभुके साथ इस भावनाका सामंजस्य नहीं बैटता है, फिर भी भक्तिके अतिरेकके कारण कविने अपनेको दासके रूपमे उपस्थित किया है। आत्मालोचन करना और जिनेश्वरके माहात्म्यको व्यक्त करना ही कविका लक्ष्य है, अतः वह कहता है मेरे अवगुन जिन गिनौ, मैं औगुनको धाम । पतित उधारक आप हौ, फरौ पतितको काम । सुभाषित खण्डमे २०० दोहे है, ये सभी दोहे नीतिविषयक है। लोक मर्यादाके संरक्षणके लिए कविने अनेक हितोपदेनाकी बात कही है। कबीर, तुलसी, रहीम और वृन्दसे इस विभागके दोहे समता रखते है। एक-एक दोहेमे जीवनको प्रगतिशील बनानेवाले अमूल्य सदेश भरे हुए है । कवि कहता है एक चरन हूँ नित पहै, तो काटै अज्ञान । पनिहारीकी लेज सों, सहज कटै पापान ॥ महाराज महावृक्षकी, सुखदा शीतल छाय । सेवत फल भासे न तौ, छाया तो रह जाय । पर उपदेश करन निपुन, ते तौ लखै अनेक । करै समिक बोलै समिक, ते हजारमें एक ॥ विपताको धन राखिये, धन दीजै रखि दार । आतम हितको छाँ दिए, धन, दारा परिवार ॥ इस खण्डकै कतिपय दोहे तो पञ्चतन्त्र और हितोपदेशक नीतिश्लोकोंका अनुवाद प्रतीत होते हैं। तुलसी, कवीर और रहीमके दोहोसे भी
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy