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________________ दार्शनिक आधार वर्णन अल्प परिमाणमे हुआ है। नायिकाके यौवन, रूप, गुण, गील, प्रेम, कुल, वैभव और आभूषणोका निरूपण न्यूनतम - मात्रामे उपलब्ध है। यह बात नहीं कि हिन्दी-जैनपृष्ठभूमि साहित्यमे अज्ञातयौवनाका भोलापन, शातयौवनाका मानसिक विश्लेषण, नवोढाकी लबाकी ललाई, प्रौढाका आनन्द-संमोहन, विदग्धाका चातुर्य, मुदिताकी उमग, प्रोषितपतिकाकी मिलनोत्कण्ठा, प्रवत्स्यत्यतिकाकी बेचैनी, आगमिण्यत्सतिकाकी अधीरता, खण्डिताका कोप एव कलहान्तरिताका प्रेमाधिक्यनन्य कलहका चित्रण नहीं है, पर प्रधानतया इसमे मानवकी उन भावना और अनुभूतियोको पृष्ठाधार रूपमे स्वीकार किया गया है, जिनपर मानवता अवलम्बित है। हिन्दी जैन-साहित्यके मूलाधारभूत जैन-दर्शनके मुख्य दो भाग हैएक तत्त्वचिन्तनका और दूसरा जीवन-शोधनका । 'जगत् , जीव और ईश्वरके स्वरूप-चिन्तनसे ही तत्त्वज्ञानकी पूर्णता नहीं होती है, किन्तु इसमें जीवन-शोधनकी मीमासाका भी अन्तर्भाव करना पडता है । जैन-मान्यताम जीव, अजीच, आखव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोम ये सात तत्त्व माने गये हैं। इनके स्वरूपका मनन, चिन्तनकर आत्मकल्याणकारी तत्त्वोमें प्रवृत्ति करना जैन-तत्त्वज्ञानका एक पहलू है। उक्त सातो तत्त्वामें जीव और अजीव ये दो मुख्य तत्त्व हैं। सच्चिदानन्द मय आत्मा या नीव जान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोंका अक्षय भाण्डार है। यह अखण्ड, अमूर्तिक पदार्थ है, जो न शरीरसे बाहर व्यास है और न शरीरके किसी विशेष भागमें केन्द्रित है, किन्तु मनुष्यके समग्र शरीरमे व्यास है। __आत्माएँ अनेक है, सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है। कर्म-अनीव (पुद्गल) के सम्बन्धके कारण ससारी आत्माएँ अशुद्ध है, राग-द्वेषसे विकृत हैं। जब कर्म बन्धन हट जाता है, तब कोई भी आत्मा शुद्ध हो जाती है। वह शुद्ध आत्मा ही ईश्वर या मुक्त कहलाती है। प्रत्येक आत्मामे ईश्वर बननेकी
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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